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तपागच्छीय तिथिप्रणालिका
एकतिथि पक्ष
■ विजयनन्दनसूरि
नमो नमः श्री गुरुनेमिसूरये ॥
उपक्रम
सर्वदा प्रत्येक कर्मकांड में प्रति स्थळ तिथि की प्रधानता रहती है । तिथि के बारे में घडी-पळ के साथ और घंटे-मिनिट के साथ प्रति वर्ष पंचांग में दी जाती है । किन्तु आराधना में तिथि किस प्रकार से मनायी जाती है? उसके लिये "उदयंमि जा तिहीo"-"क्षये पूर्वाo" "वृद्धौ उत्तरा०" "यां तिथिं समनुप्राप्य०" आदि विधिनियम वचन के अनुसार चली आती परंपरा यथार्थ स्वरूप से समझमें आ शकती है । परंपरा भी एक आगम अर्थात् मान्य शास्त्र स्वरूप ही है और वह शास्त्रसापेक्षभाव के अनुसार अविच्छिन्न रूप से चली आती है।
आराधना में तिथि की यथार्थ समझ के लिये यह "तपागच्छीय तिथिप्रणालिका" लिखी गयी है और वह स्वपरकल्याण के उद्देश के साथ लिखी गयी है।
इस "तपागच्छीय तिथिप्रणालिका" का संशोधन-संपादन पंन्यास श्री सूर्योदयविजय गणि ने किया है।
विजयनन्दनसूरि
शरण्य ! पुण्ये तव शासनेपि, संदेग्धि यो विप्रतिपद्यते वा । स्वादौ स तथ्ये स्वहिते च पथ्ये, संदेग्धि यो विप्रतिपद्यते वा ।। सुनिश्चितं मत्सरिणो जनस्य, न नाथ! मुद्रामतिशेरते ते । माध्यस्थ्यमास्थाय परीक्षका ये, मणो च काचे च समानुबन्धाः ।।
यदीय सम्यक्त्वबलात् प्रतीमो भवादृशानां परमस्वभावम् । कुवासनापाशविनाशनाय, नमोस्तु तस्मै तव शासनाय || अस्मादृशां प्रमादग्रस्तानां चरणकरणहीनानाम् ।
अब्धौ पोत इवेह, प्रवचनरागः शुभोपायः ।। वीतराग । सपर्यातस्तवाज्ञापालनं परम् ।
आज्ञाराजा विराद्धा च, शिवाय च भवाय च ॥
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