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तिथिः शरीरं तिथिरेव कारणम् ।। तिथिः प्रमाणं तिथिरेव साधनम् ।।
औं ह्रीं अहं नमः ||
श्री स्तंभनपार्श्वनाथाय नमः ॥
अनन्तलब्धिनिधानाय श्री गौतमस्वामिने नमः ॥
नमो नमः श्री गुरुनेमिसूरये ॥
श्रीजैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक तपागच्छीयचतुर्विध श्री श्रमणसंघनी शास्त्र अने श्री विजयदेवसूरीय सुविहित परंपरा अनुसार अविच्छिन्न चली आती
तिथिविषयक एकतिथि पक्ष की शुद्ध प्रणालिका
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12 पर्वतिथि की क्षय वृद्धि हो ही शकती नहीं है ।
लौकिक पंचांग में पर्व और अपर्व दोनों प्रकार की तिथिओं की क्षय वृद्धि की जाती है किन्तु प्राचीन जैन परंपरा में पर्वतिथि की क्षय वृद्धि नहीं होती है । किन्तु जब लौकिक पंचांग में पर्वतिथि की क्षय वृद्धि हो तब आराधना में अपर्वतिथि की क्षय वृद्धि की जाती है। साथ साथ पर्वतिथि और अपर्वतिथि दोनों को एक ही दिन में बोली नहीं जाती है और लिखी भी नहीं जाती है। और दो पर्वतिथि भी एक ही दिन में नहीं की जाती है। उसकी जगह अपर्वतिथि की क्षयवृद्धि की जाती है।
मुख्य पर्वतिथि बारह है। शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की बीज, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी, और पूर्णिमा व अमावास्या । लौकिक पंचांग में इन पर्वतिथि की क्षय वृद्धि हो तब आराधना में अपर्वतिथि की क्षय वृद्धि की जाती है।