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महोपाध्याय क्षमाकल्याण जी रचित साहित्य
मणिगुरु चरणरज आर्य मेहुलप्रभसागर
भारत की संस्कृति के विकास व ऊर्वीकरण में जैन धर्मावलंबियों का विशेष योगदान रहा है। जिन्होंने संस्कृति की रक्षा-संवर्धन-उत्कर्ष हेत विभिन्न साहित्य का सजन कर विश्व को अमूल्य विरासत दी है। आचार्य हरिभद्रसूरि, जिनेश्वरसूरि, नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, हेमचंद्रसूरि, जिनपतिसूरि, महोपाध्याय समयसुंदरजी, प्रौढ़ द्रव्यानुयोगी देवचंद्रजी, उपाध्याय यशोविजयजी आदि साहित्य सर्जकों के नाम आज तक श्रद्धा से स्मरण किये जा रहे हैं। इसी विद्वद्वरेण्यों की नामावली में पाठक प्रवर महोपाध्याय क्षमाकल्याण जी म. का प्रतिष्ठित स्थान हैं । जन्म दीक्षा
बीकानेर के समीपवर्ती गाँव केसरदेसर के ओसवाल वंशीय मालु गौत्र में विक्रम संवत् 1801 में आपका जन्म हुआ। जन्म का नाम खुशालचन्द था । विक्रम संवत् 1812 में ग्यारह वर्ष की लघुवय में खरतरगच्छाधिपति आचार्य श्री जिनलाभसूरिजी म. के विजयी राज्य में वाचक श्री अमृतधर्मजी महाराज के निकट दीक्षा का कठोर-मार्ग स्वीकार किया ।
जिस परम्परा में आपने कंटकाकीर्ण साधना मार्ग अंगीकार किया, वह सुविहित या विधिमार्गी परम्परा के रूप में शताब्दियों से जैन समाज में ही नहीं अपितु विद्वद् समाज में भी सुविख्यात रही है। जैन साहित्य के विकास एवं संरक्षण में इस सुविहित मार्ग के अनुसरण करने वालों का बहुत बड़ा अवदान रहा है।
आपका दीक्षाकुल जितना उज्जवल एवं प्रेरणाप्रद था, विद्याकुल भी उतना ही विद्वद्वरेण्य था। पूज्य श्री राजसोमजी महाराज जैसे प्रतिभासम्पन्न विद्वान् मुनि के श्रीचरणों में बैठ कर सिद्धान्त, न्याय और साहित्यादि विषयों का ज्ञानार्जन किया एवं उपाध्याय श्री रामविजयजी महाराज के निकट काव्य, छंद, अलंकार आदि विषयों में पारंगत बनकर शास्त्रों के गूढ रहस्यों का अवगाहन किया। परिणामस्वरूप शासन और संस्कृति के उत्तरदायित्व को आपश्री ने अल्पवय में ही भलीभांति समझ लिया ।
महोपाध्यायजी प्रौढ़ विद्वान् एवं उच्चकोटि के कवि थे। 45 वर्षों तक निरंतर साहित्योपासना के द्वारा महोपाध्यायजी को साहित्यकारों में विशिष्ट स्थान प्राप्त है।