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अतिथि संविभाग व्रत है। इसे वैयावृत्य भी कहा गया है, जिसमें मुनियों की सेवा सुश्रुषा का भी विधान
1- दिगव्रत- अर्थलोलुपी मानव तृष्णा के वश होकर विभिन्न देशों में परिभ्रमण करता है और विदेशों में व्यापार संस्थान स्थापित करता है । मनुष्य की इस निरंकुश तृष्णा को नियंत्रित करने के लिए दि का विधान किया गया है। पूर्वादि दिशाओं में नदी, ग्राम, नगर आदि प्रसिद्ध स्थानों की मर्यादा बॉधकर जन्मपर्यन्त उससे बाहर न जान और उसके भीतर लेन-देन करना दिग्व्रत है। इस व्रत के पालन करने से क्षेत्रमर्यादा के बाहर हिंसादि पापों का त्याग हो जाता है और उस क्षेत्र में वह महाव्रतीतुल्य बन जाता
2- देशावकाशिक व्रत - दिव्रत में जीवन - पर्यन्त के लिए दिशाओं का परिमाण किया जाता है। इसमें किये गये परिमाण में कुछ समय के लिए किसी निश्चित देश पर्यन्त आने-जाने का नियम ग्रहण करना देशावकाशिक व्रत है।
3- अनर्थदण्डव्रत - बिना प्रयोजन के कार्यो का त्याग करना अनर्थदण्डव्रत कहलाता है। जिनसे अपना कुछ भी लाभ न हो और व्यर्थ ही पाप का संचय होता हो, ऐसे कार्यो को अनर्थदण्ड कहते हैं और उनके त्याग को अनर्थदण्डव्रत कहा जाता है।
शिक्षाव्रत के चार भेद हैं- 1. सामायिक, 2 प्रोषधोपोवास 3. भोगोपभोगपरिमाण और 4. अतिथिसंविभाग ।
1 - सामयिक - तीनों सन्ध्याओं में समस्त पाप के कर्मों से विरत होकर नियत स्थान पर नियत समय के लिए मन, वचन और काय के एकाग्र करने को सामायिकव्रत कहते हैं। जितने समय तक व्रती सामायिक करता है, उतने समय तक वह महाव्रती के समान हो जाता है। समभाव या शान्ति की प्राप्ति के लिए सामायिक किया जाता है।
2 - प्रोषधोपवास- पाँचों इन्द्रियों अपने- अपने विषय से निवृत्त होकर उपवासी नियंत्रित रहे, उसे उपवास कहते हैं। प्रोषध अर्थात् पर्व के दिन उपवास करना प्रोषधोपवास हैं साधारणतः चारों प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास है, पर सभी इन्द्रियों के विषय भोगों से निवृत्त रहना ही यथार्थ में उपवास है। प्रौषधोपवास से ध्यान, स्वाध्याय, ब्रम्हचर्य और तत्वचिन्तन आदि की सिद्धि होती है।
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3- भोगोपभोगपरिमाण आहार- पान, गन्ध-माला आदि को भोग कहते हैं जो वस्तु एकबार भोगने योग्य है, वह भोग है और जिन वस्तुओं को पुनः पुनः भोगा जा सके वे उपभोग हैं। इन भोग और उपभोग की वस्तुओं का कुछ समय के लिये अथवा जीवन- पर्यन्त के लिए परिमाण करना भोगोपभोगपरिमाणव्रत है। इस व्रत के पालन करने से लोलुपता एवं विषयवाछा घटती है।
4-अतिथिसंविभाग- जो संयमरक्षा करते हुए विहार करता है अथवा जिसके आने की कोई निश्चित तिथि नहीं है, वह अतिथि है। इस प्रकार के अतिथि को शुऋचित्त से निर्दोष विधिपूर्वक आहार देना अतिथिसंविभागव्रत है। इस प्रकार के अतिथियों को योग्य औषध, धर्मोपकरण, शास्त्र आदि देना इसी व्रत में सम्मिलित है।