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है और सत्य अहिंसा की सुरक्षा करता हैं अहिंसा के बिना सत्य नग्न एवं कुरूप है। अतः मृषावादका त्याग अपेक्षित है। स्थूल झूठ का त्याग किये बिना प्राणी अहिंसक नहीं हो सकता है। वचन के दोष से व्यक्ति और समाज दोनों में दोष उत्पन्न होता है। अतएव मृषावाद का त्याग आवश्यक है।
3-अचौर्याणुव्रत-मन, वाणी और शरीर से किसी की सम्पत्ति को बिना आज्ञान न लेना अचौर्याणुव्रत है। स्तेय या चोरी के दो भेद हैं- (1) स्थूल चोरी और (2)सूक्ष्म चोरी। जिस चोरी के कारण मनुष्य चोर कहलाता है, न्यायालय से दण्डित होता है और जो चोरी लोक में चोरी कही जाती है, वह स्थूल चोरी है। मार्ग चलते-चलते तिनका या कंकड़ उठा लेना सूक्ष्य चोरी के अन्तर्गत है। किसी के घर में सेंध लगाना, किसी का पॉकेट काटना, ताला तोड़ना, लूटना, ठगना आदि चोरी है। अचौर्याणुव्रत के धारी गृहस्थ को एकाधिकार पर भी नियंत्रण करना चाहिए। समस्त सुविधाएँ अपने लिए सन्चित करना तथा आवश्यकताओं को अधिक से अधिक बढ़ाते जाना भी स्तेय के अन्तर्गत है।
4-स्वदारसन्तोष व्रत - मन, वचन और कार्यपूर्वक अपनी भार्या के अतिरिक्त शेष समस्त स्त्रियों के साथ विषयसेवन का त्याग करना स्वदारसन्तोषव्रत है। जिस प्रकार श्रावक के लिए स्वदारसन्तोषव्रत का विधान है उसी प्रकार श्राविका के लिए स्वपतिसन्तोष का नियम है। नियंत्रित रूप में विषय का सेवन करना और परस्त्रीगमन का त्याग करना ब्रम्हचर्याणुव्रत या स्वदारसन्तोष में परिगणित है। यह अणुव्रत जीवन को मर्यादित करता है और मैथुन सेवन को नियंत्रित करता है।
5-परिग्रहपरिमाण व्रत-परिग्रह संसार का सबसे बड़ा पाप है। श्रावक अपनी इच्छाओं को नियंत्रित कर परिग्रह का परिमण ग्रहण करता है। संसार के धन, ऐश्वर्य आदि का नियमन कर लेना परिग्रहपरिमाणव्रत है। अपने योग-क्षेम के लायक भरणपोषण की वस्तुओं को ग्रहण करना तथा परिश्रम कर जीवनयापन करना न्याय और अत्याचार द्वारा धन का संचय न करना परिग्रहपरिमाण है। ममत्व या लालसा को घटाकर वस्तुओं को नियमित या कम करना परिग्रहपरिमाणवत है। इस व्रत का लक्ष्य समाज की आर्थिक विषमता को दूर करना है।
गुणव्रत और शिक्षाव्रत
श्रावक धर्म में गुणव्रत और शिक्षाव्रत अहिंसा की साधना को और गहन करने के लिए हैं। गुणव्रत तीन हैं- (1) अपनी इच्छाओं को सीमित करने के लिये सभी दिशाओं का परिमाण करना दिग्वत है। (2) वस्तुओं के प्रति आसक्ति भाव कम करने के लिये उनकी सीमा निर्धारित करना भोगोपभोग परिमाण व्रत है। (3) निरर्थक कार्यो को नहीं करना अनर्थदण्ड व्रत है। उदाहरणार्थ, दूसरे के सम्बन्ध में बुरा नहीं सोचना, हिंसक कार्यों का उपदेश नहीं देना, आवश्यक वस्तुओं का दुरुपयोग नहीं करना आदि।
क्षाव्रत चार हैं- (1) सभी पदार्थों में समभाव को रखते हुए अपने स्वरूप में लीन होना सामायिक है। (2) सामायिक की स्थिरता के लिये उपवासपूर्वक धार्मिक कार्यों में समय व्यतीत करना प्रोषधोपवास है। (8) कषायों को कम करने के लिए प्रतिदिन दिशाओं की तथा भोगोपभोग की वस्तुओं की मर्यादा करना देश व्रत है। (4) आत्म साधना में रत अतिथियों के लिये आहार, औषध आदि देना