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पश्चात् कुछ समय तक दोनों परम्परा आचार्यों का भेद स्वीकार करती है और भद्रबाहु के
जम्बू समय फिर दोनों एक बन जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रभवस्वामी के समय से ही कुछ मतभेद के अंकुर फूटने लगे। भद्रबाहु के समय (वी. नि. 160 के लगभग) पाटलीपुत्र में जो प्रथम वाचना हुई उससे परंपरा मतभेद तीव्र हो गया। इस समय सम्राट चन्द्रगुप्त का शासन था और उस समय मगध में बारह वर्ष का भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। इस कारण बहुत से निष्ठावान दृढ़वर्ती साधु भद्रबाहु के साथ दक्षिण भारत को चले गये और शेष स्थूलभद्र के साथ वहीं रह गये । श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार भद्रबाहु स्वामी नेपाल की ओर गये (संभव है कि दक्षिण के बाद नेपाल गये हो) भद्रबाहु की अनुपस्थिति में ग्यारह अंगों का संकलन किया गया, वह सबको पूर्ण मान्य नहीं हुआ। लगभग 700 वर्ष बाद दूसरी बार दो वाचनाएँ हुई, मथुरा में आचार्य स्कन्दिल के नेतृत्व में और वल्लभी में आचार्य नागार्जुन के नेतृत्व में। इनमें फिर से श्रुत संकलन हुआ। माथुरी वाचना का दिगम्बर परंपरा ने पूर्ण बहिष्कार किया। अंतिम वाचना इसके 150 वर्ष बाद वल्लभी में आचार्य श्रमा श्रमण देवर्द्धिगणि के नेतृत्व में हुई जिसमें आगमों को ताड़पत्र पर लिखित रूप दिया गया । दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्परा मानती है कि पूर्वों का ज्ञान पूर्ण रूप से लुप्त नहीं हुआ । दिगम्बर मान्यता है कि आचार्य धरसेन अंग-आगम के ज्ञाता थे और उनके पास पूर्वी का आंशिक ज्ञान सुरक्षित था। उन्होंने आचार्य पुष्पदंत और भूतबलि को वाचना प्रदान की। ऐसा माना जाता है कि आचार्य पुष्पदंत और भूतबलि ने दूसरे पूर्व अग्रायणीय के कुछ अंश के आधार पर षट्खण्डागम की रचना की और आचार्य गुणधर ने पाँचवे पूर्व ज्ञानप्रवाद के कुछ अंश के आधार पर कषाय पाहुड़ की रचना की। श्वेताम्बर मान्यता है कि बारहवें आगम दृष्टिवाद में पूर्वों का ज्ञान समाहित है। श्वेताम्बर परम्परा सर्वथा आगम -विच्छेद की परम्परा को स्वीकार नहीं करती। इस परंपरा के अनुसार आगम-वाचनाकार आचार्यों के सत्प्रयत्नों से आगम-संकलन का महत्त्वपूर्ण कार्य हुआ और इससे आगमों की सुरक्षा होती रही। दुष्काल के समय आगम-निधि क्षत-विक्षत तो हुई पर उसका पूर्ण लोप नहीं हुआ था।
द्वादशांगी की देन आचार्य सुधर्मा की है । दशवैकालिक के आचार्य शय्यम्भव छेद सूत्रों के रचयिता आचार्य भद्रबाहु और प्रज्ञापना के रचयिता श्यामाचार्य थे। तत्वार्थ सूत्र के रचयिता आचार्य उमास्वाति ( उमास्वामी) समयसार प्रवचनसार नियमसार, पंचास्तिकाय अष्टम्राभृत साहित्य आदि ग्रंथों के रचयिता आचार्य कुंदकुंद इस युग के महान् साहित्यकार थे। षट्खण्डागम, कषायप्राभृत और समयसार आदि ग्रंथों को दिगम्बर परम्परा में आगमवत् उच्च स्थान प्राप्त है। परम्परा भेद
वीर निर्वाण की सातवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अविभक्त जैन श्रमण संघ श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दो शाखाओं में विभक्त हो गया। श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार वी. नि. 609 (वि.सं. 139 ) में दिगम्बर मत की स्थापना हुई। दिगम्बर मत के अनुसार वी. नि. 606 (वि.सं. 136 ) में श्वेताम्बर मत की स्थापना हुई । यापनीय संघ की समन्वयात्मक नीति ने इन दोनों के बीच समझौता करने का प्रयत्न भी किया ।
श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर ने तो अचेलक धर्म का उपदेश दिया किंतु बीच के 22 तीर्थंकरों ने सचेल और अंचल दोनों धर्मों का उपदेश दिया। दिगम्बर परंपरा ऐसा नहीं मानती ।
दिगम्बर सम्प्रदाय
प्रारम्भ में दिगम्बर को मूल संघ भी कहा जाता था । मूलसंघ 4-5वीं शताब्दी में दक्षिण भारत में विद्यमान था। इसका विभाजन गण के रूप में हुआ और सात से अधिक गणों का वर्णन मिलता है। दक्षिण प्रांत में आचार्य जिनसेन के सतीर्थ्य विनयसेन के शिष्य कुमार सेन ने काष्ठा संघ की स्थापना की। इस संघ में मयुर पिच्छी की जगह गाय के बैलों की पिच्छी का प्रयोग किया जाता था काष्ठा संघ की प्रमुख
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