SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शरीर भी। मनुष्य का आभ्यंतर व्यक्तित्व भी 'स्व' है और बाह्य व्यक्तित्व भी! 'स्व' का भीतरी केन्द्र आत्मा है, आत्मा के गुण एवं स्वरूप का विकास करना, उसकी गुप्त शक्तियों का उद्घाटन करना, यह 'स्व' का भीतरी विकास है। 'स्व' का दूसरा अर्थ स्वयं, शरीर आदि है। 'स्वयं का, अर्थात परिवार, समाज तथा राष्ट का पोषण, संरक्षण एवं संवर्धन करना। यही 'स्व' का बाह्य-आभ्यंतर संतुलन है। मनुष्य के इस बाह्य-आभ्यंतर 'स्व' का संतुलन जब बिगड़ जाता है, तब राष्ट्रों में ही क्या, हर परिवार व घर में रावण और दुर्योधन' पैदा होते हैं। कंस व कुणिक-से पुत्र जन्म लेते हैं। रामगुप्त और औरंगजेब का उद्भव होता है। और, तब व्यक्ति और समाज, धर्म और राष्ट्र रसातल की ओर जाते हैं। जैन-दर्शन ने मनुष्य के 'स्व' को, स्वार्थ को बहुत विराट रूप में देखा है और उसके व्यापक विकास की भूमिका प्रस्तुत की है। उसके समक्ष बाह्य और आभ्यंतर-दोनों प्रकार से, स्वार्थ की पूर्ति का संकल्प रखा है, किन्तु दोनों के संतुलन के साथ / 'भी' के साथ, न कि 'ही' के साथ। आध्यात्मिक विकास की अोर भी उन्मख होना है, जीवन में वैराग्य, निस्पहता और आत्मलीनता का विकास भी करना है और परिवार व समाज के उत्तरदायित्वों को भी निभाना है। जीवन में दरिद्र और भिखारी रह कर धर्म-साधना का उपदेश जैन-दर्शन नहीं करता। वह तो आपका आभ्यन्तर जीवन भी सुखी व संपन्न देखना चाहता है और बाह्य जीवन भी। इन दोनों का सन्तुलन बनाकर चलना-यही वृत्तियों का उदात्तीकरण है, जीवन का ऊर्ध्वमुखी स्रोत है। और, यह वह उत्स है, जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की ओर जाने वाली धाराएँ साथ-साथ बहती हैं। बस, यही तो धर्म का मर्म है। 1. यतोऽभ्युदय निःश्रेयससिद्धिः स धर्मः।--वैशेषिक दर्शन, 1-1 जीवन में 'स्व' का विकास 153 Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212365
Book TitleJivan Me Swa Ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size694 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy