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________________ आँधी और तूफान से अन्तर् का महासागर क्षुब्ध न हो, समभाव की जो लौ जल रही है, वह बुझने नहीं पाए, बस यही चैतन्य देव को जगाने की साधना है। यही हमारा समत्व योग है। समता प्रात्मा की मूल स्थिति है, वास्तविक रूप है। जब यह वास्तविक रूप जग जाता है, तो जन में जिनत्व प्रकट हो जाता है। नर से नारायण बनते फिर क्या देर लगती है ? इसलिए अन्तर की साधना का मतलब हुआ समता की साधना। राग-द्वेष की विजय का अभियान ! क्या कर्म ने बाँध रखा है ? __ साधकों के मुंह से बहुधा एक बात सुनने में आती है कि हम क्या करें ? कर्मों ने इतना जकड़ रखा है कि उनसे छुटकारा नहीं हो पा रहा है ! इसका अर्थ है कि कर्मों ने बेचारे साधक को बाँध रखा है। किन्तु प्रश्न यह है कि क्या कर्म कोई रस्सी है, साँकल है, जिसने आपको बाँध लिया है? यह प्रश्न गहराई से विचार करने का है कि कमों ने आपको बाँध रखा है या आपने कर्मों को बाँध रखा है ? यदि कर्मों ने आपको बाँध रखा है, तो फिर आपकी दासता का निर्णय कर्मों के हाथ में होगा और तब मुक्ति की बात तो छोड़ ही देनी चाहिए। ऐसी स्थिति में जप, तप और आत्मशुद्धि की अन्य क्रियाएँ सब निरर्थक हैं। जब सत्ता कर्मों के हाथ में सौंप दी है, तो उनके ही भरोसे रहना चाहिए। कोई प्रयत्न करने की क्या आवश्यकता है? वे जब तक चाहेंगे, आपको बाँधे रखेंगे और जब मुक्त करना चाहेंगे, आपको मुक्त कर देंगे। आप उनके गुलाम हैं। आप का स्वतन्त्र कर्तृत्व कुछ अर्थ नहीं रखता। किन्तु, जब यह माना जाता है कि आपने कर्मों को बाँध जा है. तो बात कछ और तरह से विचारने की हो जाती है। इस से यह तो सिद्ध हो जाता है कि कर्म की ताकत से आपकी ताकत ज्यादा है। बँधने वाला गुलाम होता है, बाँधने वाला मालिक । गुलाम से मालिक बड़ा होता है। तो, जब हमने कर्म को बाँथा है, तो फिर उन्हें छोड़ने की शक्ति किसके पास है ? जिसने बाँधा है, उसी के पास ही है न? स्पष्ट है, कर्मों को छोड़ने की शक्ति आत्मा के पास ही है, चैतन्य के पास ही है, मतलब यह कि आपके अपने हाथ में ही है। हमारा अज्ञान इस शक्ति को समझने नहीं देता है, अपने आपको पहचानने ही नहीं देता है, यही तो हमारी सबसे बड़ी दुर्बलता अध्यात्म-दर्शन ने हमें स्पष्ट बतला दिया है कि जो भी कर्म है, वे सब तुमने बाँधे है, फलतः तुम्हीं उन्हें छोड़ भी सकते हो-'बंधपमोक्खो तुज्ज अज्झत्थेव'--बधन और मुक्ति हर व्यक्ति के अपने अन्तर् में ही है। बन्धन क्या है? कर्म के प्रसंग में हमें एक बात और विचार लेनी चाहिए कि कर्म क्या है और जो बन्धन होता है, वह क्यों होता है ? अन्य पदगलों की तरह कर्म भी अचेतन जड-पदगल है, परमाणपिण्ड हैं। कुछ पूदगल अष्टस्पर्शी होते हैं, कुछ चतुःस्पर्शी । कर्म चतुःस्पर्शी पुद्गल हैं। प्रात्मा के साथ चिपकने या बँधने की स्वतन्त्र शक्ति उनमें नहीं है, न वे किसी दूसरे को बाँध सकते हैं और न स्वयं ही किसी के साथ बँध सकते हैं। हमारी मन, वचन आदि की क्रियाएँ प्रतिक्षण चलती रहती हैं। खाना-पीना, हिलनाडोलना, बोलना आदि कुछ क्रियाएँ तो महापुरुषों के जीवन में भी चलती रही हैं। जीवन में क्रियाएँ कभी बन्द नहीं होती। यदि हर क्रिया के साथ कर्म बन्ध होता हो, तब तो मानव की मुक्ति का कभी प्रश्न ही नहीं उठेगा। चूंकि जब तक जीवन है, संसार है, तब तक क्रिया बन्द नहीं होती, पूर्ण प्रक्रियदशा (अकर्म स्थिति) अाती नहीं । और जब तक क्रिया बन्द नहीं होती, तब तक कर्म बँधते रहेंगे, तब तो फिर यह कर्म एक ऐसा सरोवर हुआ, जिसका धर्म का अन्तहृदय १२६ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212362
Book TitleDharm Ka Antar Hriday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size615 KB
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