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'जन' और 'जिन' :
जिस हृदय में करुणा है, प्रेम है, परमार्थ के संकल्प हैं और परोपकार की भावनाएँ हैं, वही इन्सान का हृदय है । आप अपने स्वार्थों की सड़क पर सरपट दौड़े चले जा रहे हैं, पर चलते-चलते कहीं परमार्थ का चौराहा आ जाए, तो वहाँ रुक सकते हैं या नहीं ? अपने भोग-विलास की काली घटाओं में घिरे बैठे हैं, पर क्या कभी इन काले बादलों के बीच परोपकार और त्याग की बिजली भी चमक पाती है या नहीं ? यदि आपकी इन्सानियत मरी नहीं है, तो वह ज्योति अवश्य ही जलती होगी !
आपको मालूम है कि हमारा ईश्वर कहाँ रहता है ? वह कहीं आकाश के किसी वैकुण्ठ में नहीं बैठा है, बल्कि वह आपके मन के सिंहासन पर बैठा है, हृदय मन्दिर में विराजमान है वह । जब बाहर की प्राँख मूंदकर अन्तर् में देखेंगे, तो उसकी ज्योति जगमगाती हुई पाएँगे, ईश्वर को विराजमान हुआ देखेंगे ।
ईश्वर और मनुष्य अलग-अलग नहीं हैं । ग्रात्मा और परमात्मा सर्वथा भिन्न दो तत्त्व नहीं हैं। नर और नारायण दो भिन्न शक्तियाँ नहीं हैं। जन और जिन में कोई अन्तर नहीं है, कोई बहुत बड़ा भेद नहीं है । आध्यात्मिक दर्शन की भाषा में कहा जाए, तो सोया हुआ ईश्वर जीव है, संसारी प्राणी है, और जागृत जीव ईश्वर है, परमात्मा है। मोहमाया की निद्रा में मनुष्य जब तक अन्धा हो रहा है, वह जन है, और जब जन की अनादि काल से समागत मोह -तन्द्रा टूट गई, जन प्रबुद्ध हो उठा, तो वही जिन बन गया । जीव और जिन में, और क्या अन्तर है ? जो कर्म-लिप्त दशा में अशुद्ध जीव है, कर्म - मुक्त दशा में वही शुद्ध जीव जिन है ।
"कर्मवद्धो भवेज्जीवः कर्ममुक्तस्तथा जिन: "
बाहर में बिन्दु की सीमाएँ हैं, एक छोटा-सा दायरा है। पर, अन्तर में वही विराट् सिन्धु है, उसमें अनन्त सागर हिलोरें मार रहा है, उसकी कोई सीमा नहीं, कोई किनारा नहीं । एक आचार्य ने कहा है
जब तक हमारी दृष्टि देश - काल की क्षुद्र सीमाओं में बँधी हुई है, तब तक वह अनन्त सत्य के दर्शन नहीं कर पाती और जब वह देश-काल की सीमाओं को तोड़ देती है, तो उसे अन्दर में अनन्त, ग्रखण्ड देशातीत एवं कालातीत चैतन्य ज्योति के दर्शन होते हैं । एक दिव्य, शान्त, तेज का विराट् पुंज परिलक्षित हो जाता है। आत्मा की अनन्त शक्तियाँ प्रकाशमान हो जाती हैं। हर साधक उसी शान्त तैजस रूप को देखना चाहता है, प्रकट करना चाहता है । साधक के लिए वही नमस्करणीय उपास्य है ।
"विक्कालाद्यनवच्छिन्नाऽनन्त - चिन्मात्रमूर्तये । स्वानुभूत्येकमानाय नमः शान्ताय तेजसे ! "
चैतन्य कैसे जगे
हमें इस बात पर भी विचार करना है कि जिस विराट् चेतना को हम जगाने की बात कहते हैं, उस जागरण की प्रक्रिया क्या है ? उस साधना का विशुद्ध मार्ग क्या है ? हमारे जो ये क्रियाकाण्ड चल रहे हैं, बाह्य तपस्याएँ चल रही हैं, क्या उससे ही वह अन्तर् का चैतन्य जाग उठेगा ? केवल बाह्य साधना को पकड़ कर चलने से तो सिर्फ बाहर और बाहर ही घूमते रहना होता है, अन्दर में पहुँचने का मार्ग एक दूसरा है और उसे अवश्य टटोलना चाहिए । आन्तरिक साधना के मार्ग से ही अन्तर के चैतन्य को जगाया जा सकता है । उसके लिए आन्तरिक तप और साधना की जरूरत है। हृदय में कभी राग की मोहक लहरें उठती हैं, तो कभी द्वेष की ज्वाला दहक उठती है । वासना और विकार आँधी-तूफान भी आते हैं । इन सब द्वन्द्रों को शान्त करना ही अन्तर की साधना है ।
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