Book Title: Dharm Ka Antar Hriday
Author(s): Amarmuni
Publisher: Z_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf

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Page 1
________________ धर्म का अन्तहृदय मानव जीवन एक ऐसा जीवन है, जिसका कोई भौतिक मूल्य नहीं प्राँका जा सकता । बाहर में उसका जो एक रूप दिखाई देता है, उसके अनुसार वह हड्डी, माँस और मज्जा यादि का एक ढाँचा है, गोरी या काली चमड़ी से ढँका हुआ है, कुछ विशिष्ट प्रकार का रंग-रूप है, प्राकार-प्रकार है। किन्तु यही सब मनुष्य नहीं है। आँखों से जो दिखाई दे रहा है, वह तो केवल मिट्टी का एक खिलौना है, एक ढाँचा है, आखिर कोई न कोई रूप तो इस भौतिक शरीर का होता ही । भौतिक तत्त्व मिलकर मनुष्य के रूप में दृश्य हो गए। आँखें क्या देखती हैं ? वे मानव के शरीर से सम्बन्धित भौतिक रूप को ही देख पाती हैं । अन्तर की गहराई में अदृश्य को देखने की क्षमता आँखों में नहीं है। ये चर्मचक्षु मनुष्य के आन्तरिक स्वरूप का दर्शन और परिचय नहीं करा सकतीं । शास्त्र में ज्ञान दो प्रकार के बताए गए हैं, एक ऐन्द्रिय और दूसरा अतीन्द्रिय । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि विषयों का ज्ञान चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा होता है । जो भौतिक है, उसे भौतिक इन्द्रियाँ देख सकती हैं। पर, इस भौतिक देह के भीतर, जो चैतन्य का विराट् रूप छिपा है, जो एक प्रखण्ड लौ जल रही है, जो परम देवता कण-कण में समाया हुआ है, उस अतीन्द्रिय को देखने की शक्ति आँखों में कहाँ है ? मनुष्य का जो सही रूप है, वह इतना ही नहीं है कि वह शरीर से सुन्दर है और सुगठित है! एक प्राकृति है, जो सजी-सँवरी है। यदि यही कुछ मनुष्य होता, तो रावण, दुर्योधन और जरासंध भी मनुष्य थे । उनका शरीर भी बड़ा बलिष्ठ था, सुन्दर था। पर, संसार ने उन्हें बड़े लोगों में गिनकर भी सत्पुरुष नहीं माना, श्रेष्ठ मनुष्य नहीं कहा। पुराणों में रावण को राक्षस बताया गया है। दुर्योधन और जरासंध को भी उन्होंने मानव के रूप में नहीं गिना । ऐसा क्यों ? इसका कारण है, उनमें श्रात्मिक सौन्दर्य का अभाव ! देह कितनी ही सुन्दर हो, पर, जब तक उसके अन्दर सोयी हुई आत्मा नहीं जागती है, आत्मा का दिव्य रूप नहीं चमकता है, तब तक वह देह सिर्फ मिट्टी का घरौंदा भर है, वह सूना मन्दिर मात है, जिसमें अब तक देवता की योग्य प्रतिष्ठा नहीं हुई है । इस देह के भीतर आत्मा अँगड़ाई भर रही है या नहीं ? जागृति की लहर उठ रही है या नहीं ? यही हमारी इन्सानियत का पैमाना है । हमारे दर्शन की भाषा में देवता वे ही नहीं हैं, जो स्वर्ग में रहते हैं, बल्कि इस धरती पर भी देवता विचरण किया करते हैं, मनुष्य के रूप में भी देव हमारे सामने घूमते रहते हैं। राक्षस और दैत्य वे ही नहीं हैं, जो जंगलों, पहाड़ों में रहते हैं और रात्रि के गहन अन्धकार में इधर-उधर चक्कर लगाते फिरते हैं, बल्कि मनुष्य की सुन्दर देह में भी बहुत से राक्षस और पिशाच छुपे बैठे हैं । नगरों और शहरों की सभ्यता एवं चकाचौंध में रहने वाला ही इन्सान नहीं है, हमारी इन्सानियत की परिभाषा कुछ और है । तत्त्व की भाषा में, इन्सान वह है, जो अन्दर की आत्मा को देखता है और उसकी पूजा करता है, उसकी आवाज सुनता है और उसकी बताई राह पर चलता है । कान्त दय Jain Education International For Private & Personal Use Only १२७ www.jainelibrary.org.

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