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________________ पानी कभी सुख ही नहीं सकता, कभी निकाला ही नहीं जा सकता। ऐसी स्थिति में मोक्ष क्या होगा ? और कैसे होगा ? सिद्धान्त यह है कि क्रिया करते हुए कर्मबंध होता भी है, और नहीं भी। जब क्रिया के साथ राग-द्वेष का सम्मिश्रण होता है, प्रवृत्ति में आसक्ति की चिकनाई होती है, तब जो पुद्गल आत्मा के ऊपर चिपकते हैं, वे कर्म रूप में परिणत हो जाते हैं । जिस-जिस शुभ या अशुभ विचार और अध्यवसाय के साथ वे कर्म-ग्रहण होते हैं, उसी रूप में वे परिणत होते चले जाते हैं । विचारों के अनुसार उनकी अलग-अलग रूप में परिणति होती है । कोई ज्ञानावरण रूप में, तो कोई दर्शनावरण आदि के रूप में। किन्तु जब आत्मा में रागद्वेष की भावना नहीं होती, प्रवृत्ति होती है, पर, प्रासक्ति नहीं होती, तब कर्म-त्रिया करते हुए भी कर्म - बँध नहीं होता । भगवान् महावीर से जब पूछा गया कि इस जीवन-यात्रा को किस प्रकार चलाएँ कि कर्म करते हुए, खाते-पीते, सोते-बैठते हुए भी कर्म बन्ध न हो, तो उन्होंने कहा"जयं चरे जयं चिट्ठे, जयमासे जयं सए । जयं भुंजन्तो भासन्तो, पावकस्मं न बंधइ ।" - दववैकालिक, ४, ८. तुम सावधानी से चलो, खड़े रहो तब भी सावधान रहो, सोते-बैठते भी प्रमाद न करो । भोजन करते और बोलते हुए भी उपयोग रखो कि कहीं मन में राग और आक्रोश की लहर न उठ जाए। यदि जीवन में इतनी जागृति है, सावधानी है, अनासक्ति है, तो फिर कहीं भी विचरण करो, कोई भी क्रिया करते रहो, पापकर्म का बँध नहीं होगा । इसका मतलब यह हुआ कि कर्म-बंध का मूल कारण प्रवृत्ति नहीं, बल्कि राग-द्वेष की वृत्ति है । राग-द्वेष का गीलापन जब विचारों में होता है, तब कर्म की मिट्टी का गोला आत्मा की दीवार पर चिपक जाता है । यदि विचारों में सूखापन है, निस्पृह और प्रनासक्त भाव है, तो सूखे गोले की तरह कर्म की मिट्टी आत्मा पर चिपकेगी ही नहीं । वीतरागता ही जिनत्व है : एक बार हम विहार काल में एक आश्रम में ठहरे हुए थे । एक गृहस्थ ग्राया और गीता पढ़ने लगा । आश्रम तो था ही। इतने में एक संन्यासी आया, और बोला--"पढ़ी गीता. तो घर काहे को कीता ?" मैंने पूछा - "गीता और घर में परस्पर कुछ वैर है क्या ? यदि वास्तव में वैर है, तब तो गीता के उपदेष्टा श्रीकृष्ण का भी घर से बर होना चाहिए और तब तो गृहस्थ को तो छोड़िए, आप साधुयों को भी गीता के उपदेश से मुक्ति नहीं होगी ।" साधु बोला- हमने तो घर छोड़ दिया है । मैंने कहा -- घर क्या छोड़ा है, एक साधारण घोंसला छोड़ा, तो दूसरे कई अच्छे विशाल घोंसले बसा लिए हैं। कहीं मन्दिर, कहीं मठ और कहीं श्राश्रम खड़े हो गए। फिर घर कहाँ छूटा है ? सन्यासी ने कहा- हमने इन सब का मोह छोड़ रखा है । मैंने कहा- हाँ, यह बात कहिए । असली बात मोह छोड़ने की है । घर में रहकर भी यदि कोई मोह छोड़ सकता है, तो बेड़ा पार है। घर बन्धन नहीं है, घर का मोह बन्धन है । कभी-कभी घर छोड़ने पर भी घर का मोह नहीं छूटता है और कभी घर नहीं छोड़ने पर भी घर में रहते हुए भी, घर का मोह छूट जाता है । बात यह है कि जब मोह और प्रासक्ति छूट जाती है, तो फिर कर्म में ममत्व नहीं रहता । अहंकार नहीं रहता । उसके प्रतिफल की वासना नहीं रहती । जो भी कर्म, कर्तव्य करना है, वह सिर्फ निष्काम और निरपेक्ष भाव से करना चाहिए । उसमें त्याग १३० Jain Education International For Private & Personal Use Only पन्ना समिक्er धम्मं www.jainelibrary.org
SR No.212362
Book TitleDharm Ka Antar Hriday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherZ_Panna_Sammikkhaye_Dhammam_Part_01_003408_HR.pdf
Publication Year1987
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size615 KB
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