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जैनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययने
आधार बनाकर रचा गया चरित साहित्य शोध की अनेकानेक संभावनाओं से परिपूर्ण है । अन्तः एवं बाह्य परिवेशों के आधार पर तुलनात्मक शोध की दिशा महत्त्वपूर्ण है । स्वयंभूदेव एवं पुष्पदन्त के जीवन-दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन, पुष्पदन्त एवं रइधू के काव्य-सिद्धान्तों की तुलना जैसे अन्तः तुलनात्मक शोधविषयों के साथ-साथ स्वयंभू प्रणीत रिट्ठमिचरिउ एवं सूरसागर की तुलना, पुष्पदन्त एवं तुलसी के काव्यादर्शों की तुलना, अपभ्रंश राम-कृष्ण काव्य एवं हिन्दी - रामकृष्ण काव्य की मूल चेतना की तुलना जैसे अनेक शोध विषय अछूते पड़े हैं । वस्तुतः अपभ्रंश की चरित्रकाव्य-परम्परा का विशद् प्रभाव आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी काव्यों पर गहरा है, अतः यहाँ अनन्त संभावनाएं भरी पड़ी हैं । सर्वाधिक अछूती दिशा है काव्य शास्त्रीय शोध की, चूँकि संस्कृत की टूटी काव्यशास्त्रीय परम्परा को इन ग्रंथों में ही ढूंढ़ कर हिन्दी - काव्यशास्त्र का आधार खोजा जा सकता है ।
अपभ्रंश के चरित-काव्यों का ध्वनि - सिद्धान्त, अलंकार - सिद्धान्त, वक्रोक्तिसिद्धान्त एवं रस - सिद्धान्त के आधार पर विशिष्ट अनुशीलन भी शोध की सर्वथा नवीन दिशा हो सकती है । इन चरित-काव्यों में लोकतत्त्व प्रचुर परिमाण में है, अतः लोक-संकृति, लोक-विश्वास, लोक-धर्म आदि शोध-बिन्दुओं पर भी सफलतापूर्वक अनुसंधाता चल सकता है । चरित्र-चित्रण शिल्प एवं मनोविज्ञान के आधार पर भी इनका स्वतंत्र एवं तुलनात्मक शोध संभावित है ।
(ग) जैन - प्रबंध काव्यधारा - प्रबन्ध-शैली जैन कवियों की विशिष्ट शैली रही है, जिसके अन्तर्गत अपभ्रंश के प्रेमाख्यानक काव्य एवं खण्डकाव्य आते हैं । अपभ्रंश की प्रेमाख्यान - परम्परा हिन्दी के मध्यकाल तक चली है और लौकिकता के समावेश से यह लोकप्रिय भी हुई । इस परम्परा में विलास और श्रृंगार की प्रधानता निश्चय ही जैन धर्म में व्याप्त निषेधों की प्रतिक्रिया का मनोवैज्ञानिक प्रतिफलन रहा होगा । मेरे मतानुसार यह सर्वथा अनूठा शोध विषय रहेगा कि धर्म, आचार एवं विधिनिषेधों के कठोरतम प्रतिबन्धों में श्रृंगार कैसे फूट पड़ा और अक्षुण्ण बना रहा ।
प्रेमाख्यान - परम्पर। में नायक-नायिका के निर्द्वन्द्व प्रेम-चित्रण में परम्परित काव्य-व्यापारों एवं कवि समयों का प्रयोग विवेच्य है । अब तक भी जैन प्रेमाख्यानक काव्यों का शोधपरक मूल्यांकन शेष ही है, जहाँ मनोवैज्ञानिक अनुशीलन के साथसाथ काव्य-रूढ़ियों के स्वरूप एवं प्रयोग जैसे शास्त्रीय विषयों पर भी उच्चस्तरीय
परिसंवाद- ४
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