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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-विद्या विषयक अनुसंधान की संभावनाएँ
(क) कथा-साहित्य-संस्कृत एवं प्राकृत भाषा से चलकर कथा-काव्यों की परम्परा अपभ्रश एवं हिन्दी तक अविरल चलती है। अपभ्रश का कथा-साहित्य लोक जीवन तथा धार्मिक जीवन से विशिष्ट संयोजित है।' अपभ्रंश एवं हिन्दी के जैनकथा-साहित्य का काव्यात्मक मूल्यांकन वर्तमान शोध की सर्वथा अछूती धारा है । जैन-साहित्य के विद्वान् डॉ. जगदीशचन्द्र जैन का अभिमत है कि जैन-कथा-साहित्य का भाषा-वैज्ञानिक शोध महत्त्वपूर्ण है, जिससे प्राकृत-अपभ्रंश शब्दों के रूपों, व्युत्पत्तिशास्त्र की टूटी परम्पराओं तथा अर्थ-विज्ञान की गुत्थियों को सुलझाया जा सकता है। कथा-साहित्य का समाजपरक अध्ययन विशेष उपादेय है, क्योंकि सामाजिक यथार्थ-बोध, धार्मिक-रिवेश, जातीय-परम्परा एवं लोक-विश्वासों की विलक्षण अभिव्यंजना जैन-कथा-साहित्य में हुई है, जिसके उद्घाटन से मध्यकालीन आर्यभाषासमाज की लुप्त प्रवृत्तियों का भी उद्घाटन होगा। मध्यकालीन भारतीय-संस्कृति के नवीन तत्त्वों के प्रकाशन हेतु कथा-साहित्य के सांस्कृतिक शोध की दिशा सर्वाधिक मूल्यवान् सिद्ध होगी।
जैन-कथा-ग्रथों का सम्पादन स्वयं में विशिष्ट संभावना से परिपूर्ण है। शैलीगत सौन्दर्य विवेचन के लिए शोध भी नई दिशा देगा। जैन-कथाओं में ऐहिकता के साथसाथ धर्मोपदेश की विशिष्ट परम्परा का मूल्यांकन मनोवैज्ञानिक और शैली वैज्ञानिक शोध की अपेक्षा रखता है। जैन-कथा-साहित्य का प्रभाव हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी की कथाओं पर भी पड़ा है, अतः तुलनात्मक अनुसंधान की संभावनाएं भी कम नहीं हैं । इस संदर्भ में जान हर्टल का अभिमत उल्लेख्य है-जैन-कथा-साहित्य केवल संस्कृत तथा अन्य भारतीय भाषाओं के अध्ययन के लिए ही उपयोगी नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता के इतिहास पर इससे महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है।
(ख) पुराण-साहित्य या चरित साहित्य-महाकवि स्वयंभूदेव, पुष्पदन्त, रइधू, हेमचन्द्र आदि द्वारा सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक आदि परिस्थितियों को १. डा० देवेन्द्र कुमार शास्त्री : अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध-प्रवृत्तियाँ, पृ० ३ । २. डा. जगदीशचन्द्र जैन : प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० ३७२।।
देशी भाषा के अनेक महत्त्वपूर्ण शब्द इस साहित्य में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं, जिनका
भाषाविज्ञान की दृष्टि से अध्ययन अत्यन्त उपयोगी है। ३. जान हर्टल : आन द लिटरेचर आफ द श्वेताम्बर जैन्स ( प्रा० सा० इ० ) पृ० ३७६ ।
परिसंवाद-४
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