Book Title: Apbhramsa Evam Hindi Me Jain Vidya Vishayak Anusandhan ki Sambhavnaye
Author(s): Yogendranath Sharma
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf

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Page 1
________________ अपभ्रश और हिन्दी में जैन विद्या विषयक अनुसंधान की संभावनाएँ डॉ० योगेन्द्रनाथ शर्मा 'अरुण' अद्यावधि संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी भाषाओं में प्राप्य जैनविद्या की विपुल संपदा जिज्ञासुओं द्वारा प्रकाश में लाई जा चुकी है, तथापि अभी भी अनेक क्षेत्र ऐसे हैं, जो सर्वथा अछूते हैं या जिनमें अत्यल्प मात्रा में ही अनुसंधान हो सका है। अपभ्रश को गुलेरी जी ने 'पुरानी हिन्दी' कहा और महापण्डित राहल जी ने अपभ्रंश के महाकवि स्वयंभूदेव को 'हिन्दी' का आदि महाकवि कहना चाहा, जिसके मूल में अपभ्रंश भाषा एवं साहित्य के प्रति लगाव' पैदा कराने की भावना रही होगी; यही मैं मानता हूँ। अस्तु । जैन-साहित्य के अनुसंधित्सुओं ने इस साहित्य की गहरी परख के बाद पाया कि तत्वतः सम्पूर्ण जैन-साहित्य में लोक-भावना का सम्मान सर्वोपरि हुआ, फलतः इसे व्यापक समर्थन भी मिला । डॉ. हीरालाल जैन का कथन द्रष्टव्य है-'जैन तीर्थकर भगवान् महावीर ने लोकोपकार की भावना से सुबोध वाणी अर्धमागधी का उपयोग किया तथा उनके गणधरों ने उसी भाषा में उनके उपदेशों का संकलन किया। उस भाषा और साहित्य की ओर जैनियों का सदैव आदर भाव रहा तथापि उनकी यह भावना लोक-भाषाओं के साथ न्याय करने में बाधक नहीं हई।' जैन-कवियों में जैनेतर लोक मान्यताओं का सम्मान करने की जो प्रवृत्ति रही, उसने एक ओर तो जैन साहित्य को समृद्ध बनाने की संभावनाओं के द्वार खोल दिए और दूसरी ओर जनेतर विद्वानों को आकृष्ट करने की शक्ति अर्जित की। जैन-साहित्य की यह उदारता अवसरवाद से प्रेरित न होकर जैन-धर्म के आधारभूत दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक मतों से संपुष्ट है। राम-लक्ष्मण एवं कृष्ण-बलराम के प्रति हिन्दुओं की श्रद्धा देखकर इन्हें 'त्रिषष्टि शलाकापुरुषों में स्थान देकर पुराण-साहित्य १. डा० हीरालाल जन : भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० ३-४ । परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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