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जनविद्या एवं प्राकृत : अन्तरशास्त्रीय अध्ययन भाषाएँ हैं। अपभ्रंश जन सामान्य की भाषा का पूर्णतया प्रतिनिधित्व करती है। इसके अतिरिक्त विभक्ति, प्रत्यय, परसर्गों में भी प्राकृत और अपभ्रंश में स्पष्ट अन्तर है। अपभ्रंश में देशी रूपों की बहुलता है। यह उकार बहुला भाषा है।
अपभ्रंश को आभीरी, भाषा, देशी एवं अवहट्ट आदि नाम भी समय समय पर दिये गये हैं। ये सब नाम अपभ्रंश के विकास को सूचित करते हैं । पश्चिमी भारत की एक बोली-विशेष आभीरी से अपभ्रंश प्रभावित है। जन भाषा की बोली होने से इसे भाषा कहा गया है। कथ्य भाषा होने से यह देशी कही गयी है तथा परवर्ती अपभ्रंश के लिए अवहट्ट कहा गया है, जो अपभ्रंश और हिन्दी भाषा को परस्पर जोड़ने वाली कड़ी है । वह आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की पूर्ववर्ती अवस्था है। प्राकृत अपभ्रंश का दाय : क्षेत्रीय भाषाएं
__ जब लोकभाषाएं साहित्य में रूढ़ हो जाती हैं तब जन सामान्य में नयी लोकभाषा का व्यवहार होने लगता है। इस प्रकार लोकभाषाएं विकसित होती रहती हैं। प्राकृत अपभ्रंश के साथ भी यही हुआ। प्राकृतों में कृत्रिमता आ जाने से तथा साहित्य तक सीमित होने से अपभ्रंश भाषा उदय में आयी थी। जब अपभ्रंश का साहित्य में सर्वाधिक प्रयोग होने लगा तथा वह नियमबद्ध होने लगी तो आगे चलकर लोक में अन्य क्षेत्रीय भाषाएं पनपने लगीं। आधुनिक आर्य भाषाओं ने प्राकृत संस्कृत के गुणों को अपनाकर अपभ्रंश के प्रभाव से अपने को अधिक स्पष्ट और सरल बनाया है। उनमें प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश इन तीनों की विशेषताएं एकत्र हुई हैं। किन्तु लोकभाषा होने के कारण प्राकृत और अपभ्रंश का दाय उनके विकास में अधिक है। यह संक्रान्ति काल की कुछ रचनाओं के अध्ययन से जाना जा सकता है।
____ संक्रान्ति काल की कुछ रचनाएं इस बात की सबल प्रमाण हैं कि प्राचीन अपभ्रंश आदि में नवीन भाषाओं का कैसे संमिश्रण हो रहा था । अब्दुल रहमान के सन्देशरासक में स्वर संकोच होने लग गया था। संयुक्त व्यंजनों में से प्रायः एक ही सुरक्षित रखा जाता था। जैसे-उच्छ्वास > उस्सास > उसास आदि । इसी तरह प्राकृतपेंगलम् एवं पुरातनप्रबन्धसंग्रह की भाषा क्रमशः अपभ्रंश की स्थिति को छोड़ती हुई लोकभाषाओं की ओर बढ़ रही थी। पश्चिमी हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी भाषाओं के बीज इनमें देखे जा सकते हैं।
उक्तिव्यक्तिप्रकरणम् की भाषा में काशी, कौशल प्रदेश की काव्य भाषा के स्वरूप का प्रामाणिक परिचय मिलता है। विशेषकर अवधी भाषा का प्राचीन रूप इनमें देखा जा सकता है। इस ग्रन्थ की भाषा में आधुनिक भारतीय भाषाओं को जन्म देने वाली सामान्य प्रवृतियाँ परिलक्षित होती हैं । वर्ण-रत्नाकर मैथिली का प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ है। इसकी भाषा में मैथिली के प्राचीनतम रूप तो सुरक्षित हैं ही,
परिसंवाद-४
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