________________
| हिन्दी-साहित्य में सतसई परम्परा |
(डॉ. दिलीप पटेल, शहादा)
का नाम उन में प्रया' छंद के आधारपर
हिंदी की र
सतसई और सतसैया शब्द संस्कृत के 'सप्तशती' और 'सप्तशतिका' शब्दों के रूपान्तर हैं जो सात सौ पद्यों के संग्रह-रूप में रूढ हो गये हैं।
भारतीय संस्कार कुछ ऐसे हैं कि हम प्रत्येक श्रेष्ठ एवं ग्राह्यवस्तु को एक निश्चित संख्या में जानने के अभ्यासी हैं। यह बात लोकगीतों में स्पष्टरूप से परिलक्षित होती है । यथा -
'सामरे मेरे घर आइ जाइयो ।
सात सहेलीन बीच बाँसुरी अधर बजाइ जइयो ।' त्रिलोक, चार पुरुषार्थ, पंचमुखी, षड्दर्शन, सप्तसिंधु, अष्टसिद्धियाँ, नवनिधियाँ, दशावतार इन उदाहरणोंसे यह बात स्वयंसिद्ध है। साहित्य के क्षेत्र में अष्टयाम, मदनाष्टक, वीराष्टक केवल आठ ही पदयोंपर आधारित काव्यकृतियाँ उपलब्ध हैं परंतु इनके द्वारा कृतिकार के कवित्व का समग्र परिचय प्राप्त करना मुश्किल है । संस्कृत में 'पंचाशिका' तथा हिंदी में 'बाइसी' 'पच्चीसी' नाम से रचनाएँ मिलती हैं परन्तु ये रचनाएँ उतनी लोकप्रिय नहीं हुई
काप्रय नहा हुइ जितनी 'शतक' अथवा 'सप्तशती' में बद्ध रचनाएँ हुई हैं | शतक परम्परा में भर्तृहरिकृत 'नीतिशतक' 'वैराग्य शतक' तथा 'श्रृंगार शतक' कवि मयर कृत 'सूर्य-शतक' बाणकृत 'चण्डी शतक' अमर कृत, 'अमर शतक' आदि प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं । इसप्रकार शतक परम्परा मिलती है । इसके अलावा सप्तशती ग्रन्थोंकी परम्परा और भी समृद्ध है । इसके मूल में भारतीयों की विशेष आस्था सात के प्रति होना भी माना जा सकता है | विवाह के समय सप्तपदी, यज्ञके समय सप्तधान्य आदिका विशेष महत्व है । सातजिह्वाएँ होने से अग्नि को सप्तजिह्व कहा जाता है । सप्तर्षि, सप्तदिन, सप्तद्वीप, सप्तस्वर, राज्य के सप्तांग, जैन न्याय के सप्त नय आदि बातों से सात संख्या का प्रत्यक्ष प्रमाण मिलता है । भारतीय मानस सप्तसंख्या के प्रति विशेष आस्था दिखाता है । इसी प्रवृत्ति के कारण शतक को सप्तगुणा करके 'सप्तशती' परम्परा का आविर्भाव हुआ होगा ऐसा प्रतीत होता है । मार्कण्डेय पुराण के अन्तर्गत 'दुर्गासप्तशती' और महाभारत के अन्तर्गत 'श्रीमद्भगवद्गीता' में सातसौ श्लोक होना भी इसी प्रवृत्ति के सूचक है । साहित्यिक क्षेत्र में महाराष्ट्रीय प्राकृत में रचित कवि हाल की 'गाह सतसई' (गाथा-सप्तशती) प्रथम उल्लेखनीय कृति कही जा सकती है जिसके अनुकरणपर परवर्ती संस्कृत कवियों-गोवर्धनाचार्य एवं श्री विश्वेश्वर ने अपनी-अपनी 'आर्या सप्तशती' का संकलन प्रस्तुत किया है।
हिन्दी की सतसई परम्परा का प्रेरणा-स्रोत मुख्य रूप से हाल कवि की 'गाथा सप्तशती' और गोवर्धनाचार्य की 'आर्या सप्तशती है । हिन्दी की सतसई परम्परा सुविशाल और सुदीर्घ है । यह परम्परा शैली एवं विषय दोनों की दृष्टि से उपर्युक्त संस्कृत प्राकृत सप्तशती परम्परा से सूत्रबद्ध है । इन दोनों में अंतर केवल यह है कि संस्कृत प्राकृत के 'सप्तशती' ग्रन्थों में - विभिन्न कवियोंदवारा
रचित मुक्त संकलित हैं जबकि हिन्दी की प्रत्येक सतसई एक ही कवि के स्वरचित पदों का संग्रह है । संस्कृत-प्राकृत के इन संग्रहों का नाम उन में प्रयुक्त विशिष्ट छंद के आधारपर किया गया है । यथा-संस्कृत के 'आर्या' छंद के आधारपर 'आर्या-सप्तशती' प्राकृत के गाथा छंद के आधारपर 'गाथा सप्तशती' | हिंदी की सभी सतसइयों में 'दोहा' छन्द का प्रयोग हुआ है । प्रयुक्त छंद के आधारपर अगर नामकरण किया जाता तो वैशिष्ट्य न रह पाता इसलिए उनके नाम प्रायः रचयिता कवियों के नाम पर आधारित हैं । यथा-तुलसी-सतसई, रहीम-सतसई, बिहारी-सतसई ।
म सतसई ग्रन्थों के नामकरण की यह प्रवृत्ति मध्यकालतक ही दिखाई देती है । आधुनिक काल में रचित सतसइयों के नाम उनमें प्रतिपादित विषयों के आधारपर मिलते है । जैसे - वीर सतसई, ब्रजराज विलास-सतसई, वसन्त सतसई, किसना सतसई ।
हिन्दी की सतसई परम्परा पर्याप्त समृद्ध है । भक्तिकाल से आधुनिक कालतक सत्ताईस सतसई ग्रन्थों के रचे जानेका उल्लेख मिलता है । ये सतसई ग्रन्थ हैं - 'तुलसी-सतसई', रहीम-सतसई, अक्षर अनन्यद्वारा दुर्गासप्तशतीका हिंदी अनुवाद, वृन्द-विनोदसतसई, अलंकार-सतसई, यमक-सतसई, बुद्धजन-सतसई, बिहारी-सतसई, मतिराम-सतसई, भपति-सतसई, चन्दन-सतसई, राम-सतसई, विक्रमसतसई, रसनिधि-सतसई, वीर-सतसई (सूर्यमल्ल), बुधजन-सतसैया (दीनदयाल), ब्रजरास विलास सतसई, (अमीरदास), आनंद प्रकाश सतसई (दलसिंह), सतसइया रामायण (कीरत सिंह) वसन्त सतसई, हरिऔध-सतसई (वियोगी हरि), किसान सतसई (जगनसिंह सेंगर), ज्ञान-सतसई, (राजेन्द्र शमा) ब्रज-सतसई (रामचरित उपाध्याय) दयाराम सतसैया (अमृतलाल) मोहन-सतसई (मोहनसिंह)।
हिन्दी सतसई-परम्परा में ऐतिहासिक दृष्टि से पहला स्थान 'तुलसी-सतसई' का है | यह एक संकलन ग्रन्थ है, सतसई की दृष्टि से रचित कृति नहीं | विषय की दृष्टि से हिन्दी में लिखित सतसइयों को दो वर्गों में रखा जा सकता है - (१) सूक्ति सतसई । (२) श्रृंगार सतसई । सूक्ति सतसई में जीवन के किसी पक्ष से संबंधित किसी तथ्य की मार्मिक, रमणीक और चमत्कार पूर्ण ढंग से अभिव्यक्ति की जाती है
और श्रृंगार सतसई में श्रृंगार रसको प्रधानता दी जाती है।
डा. श्यामसुंदरदासजी, सूक्ति के संबंध में मत प्रतिपादित करते हुए कहते हैं - "सूक्ति या सुभाषित
ल सी-सतसई' का
सा प्रतीत होता सप्तशती' परम्परा
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
कपट कला करता नहीं, पूज्य जनों के संग । जयन्तसेन मिले उसे, आतम शान्ति अभंग ।।
www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Private & Personal Use Only