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का अर्थ अच्छे कथन से है । सूक्ति का प्रधान उद्देश्य आदेश है। हजारीप्रसाद द्विवेदीजी अपने 'हिन्दी साहित्य' में हिन्दी की श्रृंगार नित्यप्रति के व्यवहार में जिन बातों से लाभ उठाया जा सकता है, सतसई परम्परा का प्रारम्भ बिहारी सतसई से मानते हैं । उन्हीं बातों को सूक्तिकार एक मार्मिक और हृदयग्राही ढंग से
महाकवि बिहारी की 'बिहारी-सतसई महत्वपूर्ण कृति है । कहता है, जिससे जन-साधारण के मन में चुभ जाती है ।" श्रृंगार आचार्य रामचंद्र शक्लजी का बिहारी सतसई के संबंध में निम्नलिखित सतसई में चमत्कार विधायिनी प्रवृत्तिकी अपेक्षा भाव व्यंजना या मंतव्य टष्टव्य है. अंगार रसके ग्रन्थों में जितनी ख्याति और रस परिपाक को प्रधानता दी जाती है । एसी सतसइया म श्रृगारजितना मान बिहारी सतसई का हआ उतना और किसी का नहीं। के संयोग वियोग दोनों पक्षों की व्यंजना होने के साथ साथ श्रृंगार
इसका एक एक दोहा हिन्दी साहित्य में एक-एक रल माना जाता के विविध पक्षों का आलम्बन उद्दीपनादि का विस्तृत वर्णन भी
है ।" बिहारी-सतसई की महत्ता निम्न दोहे से स्वयं प्रमाणित हो रहता है । इसलिए श्रृंगार सतसई सूक्ति सतसई से अधिक
जाती हैलोकप्रिय होती है । हिन्दी में सूक्ति सतसई के अन्तर्गत तीन सतसइयों की गणना की जा सकती है -
सतसइया के दोहरे ज्यों नाविक के तीर । (१) तुलसी-सतसई । (२) रहीम-सतसई (३) वृन्द-सतसई ।
देखन में छोटे लगें, घाव करे गम्भीर ॥ तुलसी-सतसई में गोस्वामी तुलसीदासजी के भक्ति एवं नीति
बिहारी-सतसई मुख्यरूप से श्रृंगार की रचना है जिसमें कवि ने विषयक दोहे संकलित हैं । सात सर्गों में विभाजित सतसई में
श्रृंगार के विविध पक्षों - संयोग, वियोग, प्रेमीप्रेमिकाओं की
श्रृंगार कवा भक्ति, उपासना, राम-भजन, आत्मबोध, कर्म व ज्ञान सिद्धांत
क्रीडाएँ, नखशिख, वयःसंधि, प्रेमोदय का विशद वर्णन किया है। और राजनीतिका स्वतंत्र विवेचन किया गया है । कुछ दोहे उपदेश प्रेम के जितने खिलवाड़ हो सकते हैं उनका विस्तृत चित्रण प्रधान हैं तो कुछ सुन्दर और मर्मस्पर्शी भी प्राप्त होते हैं । यथा - 'बिहारी-सतसई' में देखा जा सकता है। संयोग की क्रीडा दृष्टव्य
'बरखत हरखत लोग सब, करखत लखें न कोय । तुलसी भूपति भानुसम, प्रजा भाग बस होय ॥
'बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय । रहीम सतसई में लौकिक जीवन के विविध पक्षोंपर कवि की
सोह करै भौंहनि हँसै, देन कहै नटि जाय ।।' मार्मिक सूक्तियाँ मिलती हैं । वृन्द सतसई औरंगजेब के दरबारी संयोग-पक्ष में रूपवर्णन की प्रधानता बिहारी की विशेषता है। नारी कवि वृन्द की सतसई विशिष्ट विदग्धतापूर्ण सूक्तियों का संग्रह है। सौंदर्य की सुकोमलता, मादकता का वर्णन करते हुए आप लिखते सरल मुहावरेदार भाषा, दृष्टांत सहित जीवनानुभव की अभिव्यंजना हैं - इस सतसई की विशेषता है । उदाहरण दृष्टव्य है -
'अरुन बरन तरुनी-चरण-अँगुरी अति सुकुमार | 'फेर न ह्वै है कपट सो जो कीजे व्यौपार ।
चुवत सुरंग रँगसो मनो चपि बिछुवन के भार ।' जैसे हाँडी काठ की चढै ना दूजी बार ॥
विरहजन्य दुर्बलता की मार्मिक व्यंजना निम्न दोहे में दृष्टव्य है - हिन्दी की श्रृंगार सतसइयों में 'बिहारी-सतसई' 'मतिराम
कि 'करके मीड़े कुसुम लौं गई बिरह कुम्हिलाय । सतसई' 'रसनिधि-सतसई' 'राम-सतसई' तथा 'विक्रम-सतसई' की गणना होती है । विद्वानों की राय में हिंदी में श्रृंगार सतसई
र सदा समीपिन सखिन हूँ नीकि पिछानी जाय ॥ परम्परा का सूत्रपात बिहारी-सतसई से होता है । आचार्य डा. अलंकारों की कलात्मक योजना 'बिहारी-सतसई की विशेषता ही
कही जाएगी । अनुप्रास, वीप्सा, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग बिहारीजी ने बड़ी खूबी से किया है | भाषा की समास शक्ति का
परिचय देनेवाला निम्न दोहा दृष्टव्य है - कई रचनाओं का पत्र 'कहत नटत रीझत खिझत मिलत खिलत लजियात । पत्रिकाओं में प्रकाशन । सफल
भरे भौन मों करत हैं, नैननु ही सो बात || शिक्षक, कुशल लेखक । छात्रों में विशेष लोकप्रियता।
बिहारी सतसई की भाषा ब्रज है । भाषा की प्रांजलता, शब्दों का सम्प्रति -प्राध्यापक, कला- सुष्ठु चयन, पदविन्यास की कुशलता, विज्ञान-वाणिज्य महाविद्यालय लाक्षणिकता, चित्रौपमता, नादयोजना, शहादा (महाराष्ट्र) माय
ध्वन्यात्मकता जो बिहारी सतसई में लक्षित होती है वह अन्य किसी भी
कृति में लक्षित नहीं होती। डॉ. दिलीप पटेल एम.ए., पी.एच.डी.,
लिशा ऊपर के विवेचन से काव्यगुणों डा.. तीपतीर का हिंदी शिक्षण निष्णात
की दृष्टि से 'बिहारी-सतसई की उत्कृष्टता प्रमाणित हो जाती है ।
श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ / विश्लेषण
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उपगारी उपगार की, कभी न करता बात । जयन्तसेन महानता, रवि शशि की दिन रात ।।
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