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________________ स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन 326 में नहीं, उनके साथ रहने वाले आग्रह के अंश को छांटकर उन्हें वह अपना अंग बनाता है। स्याद्वाद दुराग्रह के लिये नहीं, किन्तु ऐसे आग्रह के लिये संकेत करता है, जिसमें सम्यक् ज्ञान के लिये अवकाश हो। सच्चा स्याद्वादी सहिष्णु होता है, वह राग-द्वेष रूप आत्मविकारों पर विजय पाने के लिये सतत प्रयत्नशील रहता है। वह दूसरों के सिद्धान्तों को आदर की दृष्टि से देखता है और मध्यस्थभाव से संपूर्ण विरोधों का समन्वय करता है। इसीलिये षड्-दर्शनों को जिनेन्द्र भगवान के अंग कहकर परम योगी आनन्दघन जी ने 'आनन्दघन चौबीसी' में इस भाव को निम्न प्रकार से व्यक्त किया है 'षट् दरसण जिन अंग भणीजे, न्याय षडंग जो साधे रे। नमि जिनवरना चरण उपासक, षट्दर्शन आराधे रे // 1 // जिन सुर पादप पाय बखाणं, सांख्य जोग दोय भेदे रे। आतम सत्ता विवरण करता, लही दुग अंग अखेदे रे // 2 // भेद अभेद सुगत मीमांसक, जिनवर दोय कर भारी रे / लोकालोक अवलंबन भजिये, गुरुगमथी अवधारी रे // 3 // लोकायतिक कूख जिनवरनी, अंश विचार जो कीजे / तत्व विचार सुधारस धारा, गुरुगम विण केम पीजे // 4 // जैन जिनेश्वर उत्तम अंग, अंतरंग बहिरंगे रे / अक्षर न्यास धरा आराधक, आराधे धरी संगे रे // 5 // . स्याद्वाद केवल दार्शनिक चिन्तन, कथन की प्रणाली ही नहीं है, अपितु प्रतिदिन जीवनव्यवहार में भी हम स्याद्वाद का प्रायोगिक रूप देखते हैं और उसके कथन के अनुरूप कार्य-प्रवृत्ति भी देखते हैं। फिर भी यह आज की विडंबना है कि स्याद्वाद-प्रणाली का उपयोग करते हुए भी उसकी शैली का नामोल्लेख नहीं करते हैं। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि स्याद्वाद चिन्तन की प्रक्रिया के साथ-साथ स्वस्थ, स्वच्छ आचार की भी प्राथमिक भूमिका है। स्याद्वाद के संबंध में अपनी शक्ति, क्षमता, बुद्धि से किये गये यत्किचित् संकेत को ज्ञानसागर के अंशमात्र का कथन मानता हूँ। प्रयास की सफलता का समग्र श्रेय गुरुजनों को है, और इसमें कुछ त्रुटि रह गई हो तो अपनी अज्ञता के लिये क्षमा-प्रार्थी हूँ / विज्ञजन संशोधन कर प्रमादगत स्खलना से अवगत करावें, जिससे परिमार्जन कर तथ्य को समझ सकें / विज्ञेषु किमधिकम् / RUARKARIN AMJAAAAAAD AAAAAAAAAABEANIJABADASHAIRJARDAMAImaniauranium AIABAmavasa n a आचारसभाचार्यप्रसा श्रीआनन्द अथश्रीआनन्दा अन्य MwwwxYYIWAN Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212243
Book TitleSyadwad Siddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherZ_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf
Publication Year1975
Total Pages24
LanguageHindi
ClassificationArticle & Anekantvad
File Size3 MB
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