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________________ AmAAAAAAAMAAJAARIAJIRAKSHANKARIAAJALMAGraminim umARMAIIANADABAJAJANAMAAJMJADAJABARADASAJANATAJANATANABAJANAS ३२८ धर्म और दर्शन जयपताका, शास्त्र वातांपमुच्चय आदि ग्रंथों का निर्माण कर योग्यता पूर्वक उक्त दोषों का निवारण किया और अनेकान्तवाद की जय-पताका फहराई। ईसा की नौवीं शताब्दी में विद्यानन्द और माणिक्यनन्दि सुविख्यात विद्वान हो गये हैं। विद्यानन्द अपने समय के बड़े भारी नैयायिक थे। इन्होंने कुमारिल भट्ट आदि वैदिक विद्वानों के जैन-दर्शन पर होनेवाले आक्षेपों का बड़ी योग्यता से परिहार किया है। विद्यानन्द ने तत्वार्थ-श्लोकवातिक, अष्टसहस्री, आप्तपरीक्षा आदि ग्रन्थों की रचना करके अनेक प्रकार से तार्किक शैली द्वारा स्यावाद का प्रतिपादन और समर्थन किया । माणिक्यनन्दि ने सर्व-प्रथम जैन न्याय को परीक्षामुख के सूत्रों में गंथ कर अपनी अलौकिक प्रतिभा का परिचय दिया और जैन-न्याय को समुन्नत बनाया। ईसा की दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में होने वाले प्रभाचन्द्र और अभयदेव महान् तार्किक विद्वान थे। इन विद्वानों ने सन्मतितर्क टीका (वादमहार्णव), प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचंद्रोदय आदि ग्रन्थों की रचना कर जैन न्यायकोष की भी वृद्धि की है । इन्होंने सौत्रांतिक, वैभाविक, विज्ञानवाद, शून्यवाद, ब्रह्माद्वैत शब्दाद्वैत आदि वादों का समन्वय करके स्यावाद का नैयायिक पद्धति से प्रतिपादन किया। इसके पश्चात् ईसा की बारहवीं शताब्दी में वादिदेवसूरि और कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्र का नाम आता है । वादिदेव वाद-शक्ति में असाधारण माने जाते हैं। वादिदेव ने स्याद्वाद का स्पष्ट विवेचन करने के लिए प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, स्याद्वाद-रत्नाकर आदि ग्रन्थ लिखे । हेमचंद्र अपने समय के असाधारण विद्वान थे। उन्होंने अन्ययोगव्यवच्छेदिका, अयोग-व्यवच्छेदिका, प्रमाणमीमांसा आदि ग्रंथों की रचना करके स्याद्वाद की सिद्धि से जैन-दर्शन के सिद्धान्तों को पल्लवित किया। ईसवी सन् की सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी में उपाध्याय यशोविजय जी और पंडित विमल'दास जैनदर्शन के विख्यात विद्वान् हो गये हैं। उपाध्याय जी जैन परम्परा में लोकोत्तर प्रतिभा के धारक एवं असाधारण विद्वान् थे। इन्होंने योग, साहित्य, प्राचीन न्याय आदि का पांडित्य प्राप्त करने के साथ नव्य-न्याय का भी पारायण किया था। आपने शास्त्र-वार्ता-समुच्चय की स्याद्वादकल्पलता टीका, नयोपदेश, नय-रहस्य, नय-प्रदीप, न्याय खंड-खाद्य, न्यायालोक, अष्टसहस्री-टीका आदि अनेक ग्रंथों की रचना की है। पंडित विमलदास ने नव्य-न्याय का अनुकरण करने वाली भाषा में सप्तभंगीतरंगिणी नामक स्वतंत्र ग्रंथ की संक्षिप्त और सरल भाषा में रचना करके एक विशेष कार्य की पूर्ति की है। पूर्वोक्त विद्वानों के अतिरिक्त अन्यान्य भी अनेक प्रभावक विद्वानों ने स्यावाद सिद्धान्त के प्रतिपादक ग्रंथों की रचना की है और जैन-दर्शन के रूप को व्यापक बनाया है। पूर्वोक्त परिशीलन से यह भलीभांति समझ में आ जाता है कि यदि पदार्थ के स्वभाव को समझना है और ज्ञान का सही मूल्यांकन करना है तो अनेकान्तमयी स्याद्वाद दृष्टि को अपनाना चाहिये । क्योंकि साधारण मनुष्य की शक्ति अत्यल्प है और बुद्धि परिमित है। इसलिये हम अपनी छमस्थ दशा में हजारों-लाखों प्रयत्न करने पर भी ब्रह्माण्ड के असंख्य पदार्थों का ज्ञान करने में असमर्थ रहते हैं। स्याद्वाद यही प्रतिपादन करता है कि हमारा ज्ञान पूर्ण सत्य नहीं कहा जा सकता है, वह पदार्थों की अमुक अपेक्षा को ही लेकर होता है, इसलिये हमारा ज्ञान आपेक्षिक सत्य है । प्रत्येक पदार्थ में अनन्त धर्म है, इन अनन्त धर्मों में से हम एक समय में कुछ धर्मों का ही ज्ञान कर सकते हैं और दूसरों को भी कुछ धर्मों का प्रतिपादन कर सकते हैं। स्याद्वाद की शैली सहानुभूतिमय है इसलिये उममें समन्वय की क्षमता है। उसकी मौलिकता यही है कि पड़ोसी वादों को उदारता के साथ स्वीकार करता है, लेकिन उनको उसी रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212243
Book TitleSyadwad Siddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherZ_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf
Publication Year1975
Total Pages24
LanguageHindi
ClassificationArticle & Anekantvad
File Size3 MB
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