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__ सुवर्णभूमि में कालकाचार्य
१०७ Kia Tan, refers to a land route between Annam and India (Journal Asiatique, II-XIII, 1919, p. 461).40
श्रावकों के लिए तो सागर-गमन और नावारोहण निषिद्ध मालूम नहीं होता है। वसुदेवहिण्डिअन्तर्गत चारुदत्त-कथानक का भी यही ध्वनि है, व्यापार के लिए जैन श्रावक द्वीपान्तरों में जहाजों से जाते थे। ज्ञाताधर्मकथासूत्र में भी रत्नद्वीप पहुँचे हुए वणिकों का प्रसंग है। अगर किसी प्रदेश में जैन गृहस्थों की वसति न हो तो वहाँ जैन साधु साध्वियों का विहार अतीव कठिन होता है क्यों कि आहार के बारे में नियमों का पालन करना मुश्किल हो जाता है। सागरश्रमण सपरिवार सुवर्णभूमि में थे ऐसे निर्देश का मतलब यह भी है कि वहाँ जैन गृहस्थ (साहसिक सोदागर) ठीक ठीक संख्या में मौजूद थे। इस तरह इस समय में (ई० स० पूर्व १५१-६०) भारतीय व्यापारियों का सुवर्णभूमि में जाना शुरू हो चूका था। व्यापार के लिए हरेक सम्प्रदाय के वणिक् जाते थे-जैन, बौद्ध या हिन्दू कोई भी हो। जैनाचार्य के वहाँ सपरिवार विहार के इस विश्वसनीय बयान का निश्कर्ष यह है कि इंसा के पूर्व की पहली-दूसरी शताब्दियों में भारतीय सोदागर और भारतीय संस्कृति के सुवर्णभूमिगमन का हमें एक और प्रमाण मिलता है।
धर्म के प्रचार के लिए सिद्धि-विद्यासिद्धि या मन्त्रसिद्धि-इत्यादि के प्रयोग करने का जैनाचार्यों के लिए निषिद्ध नहीं था। ऐसी प्रभावना के कई दृष्टान्त मिलते हैं और ऐसे प्राचार्यों को प्रभावक प्राचार्य कहते हैं। आर्य वज्र, आर्य खपुट, आर्य पादलित जैसे प्राचीन आचार्यों के ऐसे कार्य सङ्घको मान्य रहे थे। साध्वी को बचाने के लिए आर्य कालक ने जो किया वह भी धर्मविरुद्ध नहीं गिना गया। शककूल में और भारत में भी कालकाचार्य ने अपने विद्या, मंत्र और निमित्त-ज्ञान का परिचय दिया। ऐसे बड़े बड़े प्राचार्यों को प्रभावक श्राचार्य कहते हैं। ऐसे बहुश्रुत प्राचार्यों के प्राचरण में २ शङ्का की बात तो दूर रही, वे आगे दूसरे प्राचार्यों और मुनियों के मार्गदर्शक भी गिने जाते हैं। आर्य वज्र, आर्य पादलिप्त, आर्य कालक आदि स्थविर प्रभावक आचार्य माने गये और प्रभावक-चरित्र में इनके चरित्र भी दिये गये।
पशाली, बहुश्रत, वृद्ध जैन श्राचार्य धर्माचरणविषयक मामले में प्रमाणभूत गिने जाते हैं और जहाँ शास्त्रों का पूरा खुलासा अनुपलब्ध हो या शास्त्रवचन समझ में न आवे वहाँ ऐसे पट्टधरों, युगप्रधानों, स्थविरों के मार्गदर्शन और कार्य प्रमाणभूत होते हैं।
श्रुतधर अनुयोगकार स्थविर आर्य कालक साध्वी को बचाने के लिए पारसकूल-शककूल गये और वहाँ से शकों को ले आये और गर्दभ का उच्छेद करवाया। आज तक आर्य कालक का यह कथानक जैन समाज में (विशेषतः श्वेताम्बर जैन सङ्क में) अतीव प्रचलित है। कालक-कथा की कई सचित्र प्राचीन हस्तप्रतें मिलती हैं। सचित्र प्रतियों में कल्पसूत्र के साथ कालककथा की प्रतियाँ मिलती रहती हैं, यह पर्युषणापर्वतिथि के साथ कालक का सम्बन्ध होने के कारण होगा। किन्तु शकों को लाने वाले कालक को इतना सन्मान मिलता है यही सूचक है।
४०. डॉ० आर० सी० मजुमदार, एन्शिअन्ट इन्डिअन कॉलनाइझेशन इन साउथ-ईस्ट एशिआ (बडोदा १९५५), पृ० ४.
४१. श्री वीरचन्द गांधी जब अमरिका सर्वधर्मपरिषद में जा कर आये तब जैन सङ्घ ने उनको प्रायश्चित्त करने का कहा। उस समय सुप्रसिद्ध जैनाचार्य श्री विजयानन्दसूरिजी (श्री आत्मारामजी महाराज) ने यही अभिप्राय दिया कि उनका समुद्रपार जाना निषिद्ध नहीं था। श्री आत्मारामजी महाराज का यह पत्र गुजराती साप्ताहिक 'जैन' (भावनगर) के ता० २८-११-१९५३ के अङ्क में प्रकाशित हुआ है।
४२. जैसे कि आर्य वज्र चैत्यपूजा के लिए पुष्प ले आये थे।
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