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________________ प्राणातिपात हो जाता है तो उसे पतिदेसना नहीं करनी होती। भिक्षुओं एवं भिक्षुणियों के लिए जो प्रातिमोक्ष नियम हैं उनमें भी 'प्राणातिपात-विरति' का समावेश है / पाटिमोक्ख में पाराणिकों के तृतीय शिक्षापद में मनुष्यों के प्राणातिपात का निषेध है, जिसे करने पर पाराजिक होता है और अपराधी भिक्षु या भिक्षुणी का संघ से निष्कासन कर दिया जाता है। पर यह प्राणातिपात जान-बूझ कर किया गया होना चाहिए। यदि यह प्राणातिपात दुर्योग-वश या प्रमादवश हो गया हो जिसमें चेतना का योग नहीं है तब तो अपराधी को केवल दोष स्वीकरण मात्र करना होता है। इसी प्रकार चेतनापूर्वक किया गया पशु-पक्षियों का वध भी 'पाचित्तिय' नामक दोष बनता है जिसका शमन 'आपत्ति-देसना' करने पर ही होता है। इस प्रकार सैद्धान्तिक रूप से तो प्रारम्भिक बौद्ध धर्म में 'जीवन' का अत्युच्च मूल्य है तथा इसे समाप्त करना या पीड़ित करना सर्वथा वजित है फिर भी इसका आशय यह भी नहीं है कि बुद्ध ने सत्त्वों के जीवन-रक्षण की क्रिया को किसी कोटि या अन्त के स्तर पर प्रतिपादित किया है / देवदत्त बौद्ध-संघ में पंचवत्थुओं (पांच प्रकार के निषेधों) को लागू करना चाहते थे परन्तु बुद्ध ने इनके स्थान पर समाज द्वारा गहित दस प्रकार के मांस-भक्षण का निषेध किया। उन्होंने तो भिक्षुओं के लिए भी तीन कोटियों से परिशुद्ध मत्स्य एवं मांस के भक्षण का भी अनुमोदन किया। किन्तु इसका तात्पर्य यह भी नहीं है कि बुद्ध पशु-हिंसा के समर्थक थे। उन्होंने तो उन यज्ञों की कटु आलोचना की जिनमें पशु-बलि दी जाती थी। उनका तात्पर्य यही था कि किसी भी क्रिया में उसमें अन्तनिहित आशय को देखना चाहिए, मात्र उसके बाह्यरूप को नहीं। दूसरे वे 'मध्यम-प्रतिपदा' के दृष्टिकोण से हर बात को देखते थे तथा अन्तों के परिवर्तन के प्रतिपादक थे। उनका प्राणातिपात-विरति-विषयक दृष्टिकोण भी इन्हीं तथ्यों पर आधारित समझा जाना चाहिए। परवर्ती (महायान) बौद्ध-धर्म एवं 'अहिंसा' महायान बौद्ध धर्म में 'अहिंसा' की अवधारणा एवं इसके व्यवहार को और भी विशिष्ट स्वरूप प्रदान किया गया। यहां भी पांच, आठ तथा दस शिक्षापदों के अतिरिक्त दस कुसलकर्म-पथों के अन्तर्गत 'अहिंसा' को प्रथम स्थान प्रदान किया गया है / 'बोधिसत्त्व' की साधना का तो आधार ही 'अहिंसा' की उद्भाविका' 'महा-करुणा' ही है। समस्त सवों के समस्त क्लेशों के उद्धरण का संकल्प ही बोधिसत्त्व की सारी साधनाओं के केन्द्र-बिन्दु में प्रतिष्ठित हुआ है। महाप्रज्ञापारमिता' शास्त्र (चीनी भाषा में प्राप्त) में दस कुशल कर्मपथों के विवेचन-क्रम में यह कहा गया है कि "प्राणातिपात का पाप समस्त पापों में उग्रतम है तथा प्राणातिपात-विरति समस्त शोभन-कृत्यों में अग्रतम है।" इस शास्त्र में प्राणातिपात के पातक की गम्भीरता का विशद विवेचन है। महायान के ब्रह्मजाल सूत्र (चीनी भाषा में) में प्राणातिपात को 10 प्रकार के पाराजिकों में पहला माना गया है तथा बोधिसत्व के लिए किसी भी प्रकार के मांस-भक्षण का निषेध किया गया है। महायान के ही महापरिनिर्वाण सूत्र में यह कहा गया है कि "मांस भक्षण तो वस्तुत: महाकरुणा के बीज को ही नष्ट कर देता है।" तथा "मैं अपने समस्त शिष्यों को मांस-भक्षण से विरत रहने का अनुजानन करता हं।" 'लंकावतार सूत्र के अनुसार भी "बुद्धत्व के लिए अभिनीहार करने वाले बोधिसत्त्व भला किस प्रकार सत्त्वों के मांस का भक्षण कर सकते हैं।" संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि महायान में 'अहिंसा' का प्रायोगिक स्तर अतिविकसित स्वरूप को प्राप्त हुआ। 'बुद्धत्व' की अवधारणा का 'धर्मकाय' में रूपान्तरण होने से जब प्रत्येक सत्त्व बुद्धबीज से युक्त है तो उसका मांस-भक्षण कैसे हो, इस विचार का विकास हआ। जापान एवं चीन के बौद्ध धर्मों पर इस तथ्य ने अत्यधिक प्रभावित किया / फलस्वरूप, जहां थेरवादी भिक्षुओं में मांसाहार का प्रचलन था वहीं महायान परम्परा के चीनी एवं कुछ समय पूर्व तक जापानी भिक्षुओं में इसका पूर्ण निषेध था। किन्तु मन्त्रयान एवं तन्त्रयान के कारण तिब्बत में वस्तु-स्थिति सर्वथा भिन्न हो गई। जो भी हो, बौद्ध धर्म में अपने विशिष्ट कर्म सिद्धान्त के कारण 'अहिंसा' का उपर्युल्लिखित विशिष्ट सिद्धान्त प्रतिष्ठापित हुआ जा जैन-धर्म में प्रतिपादित 'अहिंसा' की अवधारणा से वैषम्य ही अधिक दरसाता है। विशेषतया इन दोनों धर्मों के अनुयायियों के मध्य इसका जो वास्तविक प्रयोग है उसमें तो विशेषतः अन्तर के दर्शन होते हैं। 1. विनय 4, पृ० 18-20, सुत्त निपात पृ. 202 इत्यादि 2. सु.नि. 307, दी. नि०११० 142, 43 इत्यादि 3. इन्साइक्लोपीडिआ ऑफ बुद्धिज्म, भाग 1 पृ. 287 में अकिरा हिराकावा द्वारा उद्धृत 4. वही. 5, लंकावतार सून पृ. 425 (टी. सुजुकी द्वारा संपादित) 102 आचार्यरत्न भी वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212208
Book TitleSugat Shasan me Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Vyas
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ahimsa
File Size568 KB
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