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सामायिक का स्वरूप व उसकी सम्यक् परिपालना : पं० कन्हैयालाल दक के प्रति अटल विश्वास कर लेना ही पर्याप्त नहीं है, अपने आपको साधनामार्ग में समर्पित कर देना और भौतिक साधनों पर से तथा देह सम्बन्धी ममता का सर्वथा त्यागकर पूर्ण समतामय हो जाना साधक के लिये परमावश्यक होता है और इस स्थिति को प्राप्त कराने में शुद्ध सामायिक का अपना महत्वपूर्ण स्थान है।
जैन धर्म में आत्म-साधक को दो भागों में विभक्त किया गया है-अनगार तथा आगार । इन दोनों के द्वारा की जाने वाली साधना क्रमशः अनगारधर्म तथा आगारधर्म के नाम से प्रसिद्ध है । जो साधक अपने घर-बार, धन-सम्पत्ति, कुटुम्ब-परिवार तथा परिग्रह का सर्वथा त्याग करके, सांसारिक ममता व मोह का त्याग करके समभाव की प्राप्ति के लिए अपने सम्पूर्ण जीवन का उत्सर्ग कर देता है और यावज्जीवन समता दर्शन के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है उसे 'अनगार' कहते हैं और उसकी साधना 'यावत्कथिक-सामायिक' कहलाती है। इसके विपरीत जो साधक घर-बार. धन-सम्पत्ति, कटम्ब-परिवार तथा परिग्रह का स्वामी होकर भी अपने गृहस्थी के व्यस्त समय में से समय निकालकर समभाव का निरन्तर अभ्यास करता है, अपनी शक्ति अनुसार एक, सामायिक करता है, वह आगार या श्रावक कहलाता है और उसकी समभाव की साधना 'इत्वरिक सामायिक' कहलाती है । इत्वरिक सामायिक (एक सामायिक का) काल २ घड़ी अर्थात् ४८ मिनट का होता है।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि केवल घर-गृहस्थी या परिवार का त्याग करके ही सामायिक नहीं की जा सकती है अपितु गृहस्थाश्रम में रहकर भी कोई भी साधक, अध्यात्म-साधना एवं समभाव का अभ्यास कर सकता है। फिर भी इतना तो निःसन्देह कहा जा सकता है कि 'यावत्कथिक सामायिक' का जीवन में बहुत बड़ा महत्व है और वह मानव-समाज के लिए एक अनुकरणीय आदर्श है । उसका अपना 'त्रैकालिक' महत्व है।
हमारे भिन्न-भिन्न शास्त्रों में सामायिक का जो स्वरूप बतलाया गया है, उसका अवलोकन करने के पश्चात उसकी शुद्धि व सम्यक् परिपालना के सम्बन्ध में विचार करना समीचीन होगा, इस दृष्टि से सर्वप्रथम सामायिक के स्वरूप का विचार कर लें। आवश्यकनियुक्ति में सामायिक का स्वरूप निम्न प्रकार से बतलाया गया है
जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य ।
तस्स सामाइयं होई, इह केवलि भासियं ।। अर्थात् जो संसार के त्रस तथा स्थावर सब प्राणियों पर समभाव रखता है उसी की सामायिक सच्ची सामायिक है, ऐसा केवली भगवान का कथन है। इसका तात्पर्य यह है कि सामायिक के साधक को राग, द्वेष, ममता, मोह आदि का शनैः शनैः परित्याग करके आत्मस्थ हो जाना पड़ता है । जिसकी आत्मा यम, नियम, संयम व तप में संलग्न हो जाती है, वही आत्मा शान्ति व एकाग्रचित्त से इस सामायिक व्रत की साधना कर सकता है। अनवस्थित व चंचल चित्त-वृत्ति वाला आत्मा सामायिक व्रत की साधना नहीं कर सकता है।
समस्त व्रतों में सामायिक व्रत ही सर्वश्रेष्ठ है, तथा मोक्ष का प्रधान अंग माना गया है। तात्त्विक दृष्टि से देखा जाये तो पाँचवें गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक एक मात्र इस सामायिक व्रत की ही उत्तरोत्तर विकसित व उत्कृष्ट साधना की जाती है।
तेरहवें सयोगी केवली गुणस्थान में आत्मा जब शुद्ध, बुद्ध, निरंजन निराकार व परिपूर्ण अवस्था को प्राप्त कर लेती है, तब उसकी समभाव की साधना भी पूर्ण हो जाती है और वह जीव स्वयं For Private & Personal Use Only
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