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________________ जिन शासन वर्णित जीव द्रव्य की विवेचना जानकर या बढ़कर व्यक्ति में अनायास ही नये विश्वास का जन्म हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति में परमात्मा बनने की योग्यता बताकर जिनशासन ने सभी प्राणियों में एक नया उत्साह पैदा कर दिया। . विश्व में सर्वदा स्थित षडद्रव्यों में अन्तिम द्रव्य पुद्गल है पुद्गल दृश्यमान अजीब पदार्थ हैं। यह अमुभव सत्ता से रहित किन्तु वर्ण, गंध, रस स्पर्श आदि को यही धारण करता है। सत्य तो यह है कि वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि का उदय भी पुद्गलों से होता है। पुद्गल को 'इंगलिश' में 'मैटेरियल' कहा जा सकता है। इसका अन्तिम सूक्ष्म अंश परमाणु कहलाता है। परमाणुओं का समूह ही स्कन्ध है स्कन्ध अर्थात पदार्थ पिण्ड भौतिक रचना का आधार वह अजीब पुद्गल द्रव्य ही है। इसमें भी लगातार परिवर्तन की प्रक्रिया चलती रहती है। किन्तु इसका मूर्तत्व आजीवत्य वर्णत्व, गंधत्व आदि इसके मौलिक गुण भी नष्ट नहीं होते। . विश्व में उपर्युक्त मात्र षडद्रव्य ही हैं इनमें भी मुख्यतया जीव और पुद्गल ही हमें प्रतीत होते हैं शेष चार द्रव्य तो प्रतीत ही नहीं होते। कर्मवाद - सम्यक् दर्शन जिसका कि जिन शासन में सर्वाधिक महत्व है वह इन षडद्रव्यों को यथोचित समझने और स्वीकारने पर ही बन पाता है। .. विश्वगत तमाम उपलब्धियों में सर्वाधिक कठिन उपलब्धि सम्पक् समझ है। धर्म अधर्म, आकाश, काल जो कि अमूर्त और अप्रभावक है। उनको छोड़ भी दे तो भी आत्मा और पुद्गल के विषय में हमारे यहाँ व्यापक भ्रांतियाँ हैं। कोई इन्हें परमात्मा की देन मानते हैं तो इन्हें मरमात्मा के हाथ के खिलौने, किन्तु वास्तव में ये इस विश्व में स्वतन्त्र द्रव्य हैं जो नितान्त अनादि है। सब की अपनी सत्ता है। . एक प्रश्न है कि यदि ये स्वतन्त्र द्रव्य है तो आत्मा को विभिन्न सुख दुःखों का अनुभव कैसे होता है? इस प्रश्न का समाधान यह है कि आत्मा अपने विकृत परिणामों से कर्म संग्रह करता है, उनका उदय है। आत्मा में सुख दुःखों का सर्जन करता है। यद्यपि कर्म पुद्गल स्वयं अजीब हैं किन्तु चेतना का संपर्क होने पर उसमें प्रभावकता आ जाती है। सुख दुःख के लिए किसी परमात्मा के कर्तव्य को स्वीकारने की आवश्यकता नहीं है। उदाहरण स्वरूप समझिए कि कोई व्यक्ति भांग पीता है और वह पागल सा बन जाता है तो भांग अजीब ही है किन्तु चेतना को प्रभावित कर उसे पगला देती है। कर्म अजीब है किन्तु आत्मा में सुख दुःख पैदा करने में स्वयं सक्षम है इसके लिए किसी परमात्म व्यवस्था की आवश्यकता नहीं। निर्देशन - सम्यक् दर्शन अर्थात यथार्थ धारणायें, देव, गुरु, धर्म, जीव, जगत के प्रति यथार्थ निश्चय की स्थिति ही सम्यक् दर्शन है। अतः जीवन के वास्तविक साफल्य के लिए आत्मा षडद्रव्य कर्म, लोक, देह, जीव सम्बन्ध आदि विषयों में स्पष्ट और असंदिग्ध निश्चय हो जाना चाहिये। प्रस्तुत निबन्ध में इतने सारे विषयों का वर्णन संभव नहीं। अतः पाठकों, जिज्ञासुओं को सत्पुरुषों, ज्ञानियों का संपर्क कर तथा स्वाध्याय द्वारा अपने अज्ञान अन्धेरे को नष्ट कर सत्य स्वरूप विस्तार के साथ समझना चाहिये। (18) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212159
Book TitleSamyak Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherZ_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf
Publication Year1992
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Samyag Darshan
File Size406 KB
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