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________________ विस्तृत यह अमूर्त तत्व बड़ा अद्भुत है उसमें किसी वर्ण गंध रस स्पर्श का अस्तित्व नहीं है। विश्वान्त तक फैले स्थूल सूक्ष्म सभी तरह के पदार्थों की गत्यात्मकता को सार्थकता प्रदान करने वाला धर्म तत्व निर्जीव जड़ स्वरूप है, इसके अस्तित्व को सिद्ध करना नितान्त असंभव है, केवल सर्वज्ञ वचन होने से श्रद्धा सहित इसे स्वीकार करना चाहिये। - आधुनिक वैज्ञानिक 'ईथर' नामक एक ऐसा पदार्थ अवश्य मानते हैं जिसका स्वरूप 'धर्म' से मिलता है यह 'धर्म' द्रव्य जिन शासन में 'धर्मास्तिकाय' के नाम से प्रसिद्ध है। अस्ति से तात्पर्य उसी के विभिन्न घटक 'देश-प्रदेश' छोटे बड़े हिस्से से लिया जाता है। काय का अर्थ समूह है। धर्म की तरह ही एक द्रव्य है 'अधर्म' इसका अर्थ है पदार्थ के स्थितिकरण में सहयोग देने वाला द्रव्य। यह भी धर्म की तरह अमूर्त विश्व व्यापी वर्ण, गंध, रस स्पर्श आदि से रहित है। आकाश काल - संसार में विद्यमान छह द्रव्यों में से तीसरे द्रव्य का नाम आकाश है, यह भी लोक व्यापी अमूर्त वर्णादि से रहित तथा नित्य है। यह पदार्थों को अवगाहन (अवकाश) अपने में स्थित होने का स्थान प्रदान करता है। विश्वगत सभी पदार्थ आकाश में ही अवस्थित है। काल भी एक द्रव्य है यह द्रव्य सभी पदार्थों के परिणामन, परिवर्तन में सहयोगी होता है। यह भी अरूपी वर्ण गंधादि से रहित है, इसका अस्तित्व क्षेत्र केवल उतना ही है जहाँ तक मानवों का निवास है। मानवेतर स्थानों पर इसका अस्तित्व नहीं क्योंकि मात्र मानव ही समय (काल) का प्रयोग करते हैं। अन्य प्राणियों में काल द्रव्य के उपयोग की क्षमता नहीं।। आत्मा - विश्वगत मौलिक पदार्थों में पांचवां द्रव्य 'आत्मा' है षड्द्रव्यों में केवल यह द्रव्य ही - चेतना सम्पन्न है। अनुभव की सत्ता भी इसके ही पास है। यद्यपि यह भी रूप, वर्ण, गंधादि से रहित है किन्तु रूपी पदार्थ तथा वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि के उपयोग की क्षमता भी केवल इसके ही पास है। सम्पूर्ण विश्व में जीवन द्रव्य व्याप्त है, किन्तु यह एक नहीं है। केवल कुछ निगोर योनियों को छोड़कर सर्वत्र एक शरीर एक जीव है। प्रत्येक आत्मा का मौलिक स्वरूप एक ही तरह का होता है, किन्तु फिर भी परस्पर सभी आत्माएं भिन्न हैं। सभी आत्माएं केवल अपने कृत कर्मों के प्रति उत्तरदायी है। उन्हें अपने कर्मों का फल स्वयं ही भोगना पड़ता है। आत्मा अन्य द्रव्यों की तरह आनन्तिक सत्ता वाला पदार्थ केवल पार्यायिक होता है, मौलिक नहीं। जैसे डालियों के इधर-उधर झूमते रहने पर भी वृक्ष का मूल जहाँ का तहाँ बना रहता है। यही स्थिति जीव की है। जीवन में अन्य कितने ही परिवर्तन क्यों न हो किन्तु उसके जीवत्व में नित्यत्व में और उसके निज स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं आता यही कारण है कि जिन शासन में पतित से पतित प्राणी भी कभी-कभी अपना आत्मोत्थान साधकर महान ही नहीं महानतम बन जाता है। यदि अर्जुन माली के क्रूर परिणामों के साथ यदि उसकी आत्मा भी सम्पूर्ण रूप से बदल जाती तो वह महावीर के संपर्क में आकर भी कदापि नहीं सुधरता किन्तु ऐसा न हुआ न हो ही सकता है। जीव द्रव्य का अपना स्वभाव अविनाशी है वह दब जायेगा पापों से किन्तु नष्ट कदापि नहीं होगा। जीव द्रव्य की स्वतन्त्रता सत्ता के साथ इसके स्वरूप का जो विवेचन जिन शासन में, वह सचमुच अद्भुत और मनन करने के योग्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212159
Book TitleSamyak Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherZ_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf
Publication Year1992
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Samyag Darshan
File Size406 KB
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