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________________ सम्यक् दर्शन श्रमण संघीय महामंत्री श्री सौभाग्य मुनि 'कुमुद' · सम्पक् दर्शन का अर्थ है, 'यथार्थ समझ' समझ जीवन का नियामक और प्रेरक तत्व है। समझने की क्षमता मानव जीवन की सब से बड़ी उपलब्धि है। हम अनन्त जीवन यात्रा के पथिक हैं अनेकों विभिन्न भवों से होकर हम आये, उनमें अधिक समय तो बेसमझी का ही रहा । एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जन्मों में भी अनेक बार 'असंज्ञी' अर्थात बेमन के रहे । एकेन्द्रिय योग्यता भी बड़ी कठिनाई से प्राप्त हुई। बहुत लम्बा समय तो ऐसा रहा जब हम विकलेन्द्रिय थे, पार्थिथ दृष्टि से भी अपूर्ण थे। प्रत्येक नवीन इन्द्रिय की उपलब्धि जीवन के लिए बड़ी चीज थी तो मन की संप्राप्ति के लिए कहना ही क्या ? मन आत्मा की अन्तिम पार्थिव उपलब्धि है। और यह तमाम उपलविधयों से अनुपम भी है। मन के सहारे ही आत्मा समझने का कार्य किया करती है। अभी हम 'संज्ञी' हैं। 'संज्ञी' ही समझने की योग्यता रखते हैं। आज हम जो कुछ हैं उस स्थिति को तुच्छ न समझें वस्तुतः हमारी यह स्थिति बहुत ही महत्वपूर्ण है । अब एकमात्र आवश्यकता है इस महान उपलब्धि के सदुपयोग की । हमारे सम्पूर्ण जीवन में सर्वाधिक महत्व की वस्तु हमारी समझने की योग्यता है अतः उसका ही सर्वाधिक सदुपयोग करने की आवश्यकता है। हम यदि नाशवान तुच्छ पदार्थों को समझने का ही प्रयत्न कर रहे हैं तो यह निश्चित बात है कि भटक रहे हैं। हमें सम्पूर्ण रूप से सजग होकर 'परमार्थ' को समझने का प्रयत्न करना चाहिये। अनेक व्यक्ति 'परमार्थ' के नाम से चौकते हैं वे समझते हैं कि परमार्थ कोई अलौकिक रहस्यात्मक व्याख्याएं हैं, जिन्हें समझ नहीं सकते, किन्तु ऐसी बात नहीं हैं, न परमार्थ कोई अलौकिक तत्व हैं। और न कोई रहस्यात्मक व्याख्या है। परमार्थ तो 'वस्तुस्थिति' है। जो जहां हैं और जैसा है उसको वहीं वैसा ही समझना परमार्थ है। परमार्थ की समझ ही 'सम्पक् दर्शन' है। षडद्रव्य इस विश्व में अन्तिम रूप से छह पदार्थ उपस्थित हैं। धर्म, अर्थ आकाश, काल, आत्मा और पुद्गल । धर्म-अधर्म- धर्म-अधर्म, कर्तव्य और भावना के रूप में तो सर्वत्र मान्य हैं किन्तु पदार्थ (द्रव्य ) के रूप में इनकी मान्यता जिन शासन में ही है। द्रव्य के रूप में धर्म अधर्म का स्वरूप जिनशासन में सचमुच निराला ही है। Jain Education International जिन शासन की मान्यता है कि विश्व में समस्त पदार्थ जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर गति करते हैं यद्यपि गत्यात्मक धर्म उनमें है किन्तु विश्व नियम के अनुसार निमित्त के बिना उपादान पूर्णतया सार्थक और सक्रिय नहीं हो सकता इसी सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक पदार्थ जो स्वयं गत्यात्मकता रखता है, उसे निमित्त रूप से एक सहयोगी तत्व की आवश्यकता है, वह सहयोगी तत्व धर्म हैं, सम्पूर्ण विश्व तक (१६) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212159
Book TitleSamyak Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherZ_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf
Publication Year1992
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Samyag Darshan
File Size406 KB
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