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________________ सम्यक चारित्र प० बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री स्वरूप __ आचार्य कुन्दकुन्द ने मोह और क्षोभ अर्थात् दर्शनमोह और चारित्रमोह, इनसे रहित आत्म-परिणति को चारित्र कहा है। नामान्तर से उसे 'धर्म' व 'सम' भी कहा गया है। अभिप्राय यह हुआ कि सम्यग्दर्शन और उसके अविनाभावी सम्यग्ज्ञान के साथ समस्त इष्टानिष्ट पदार्थों में राग-द्वेष न करना--यह 'चारित्र' है।' इसी अभिप्राय को व्यक्त करते हुए आचार्य समन्तभद्र ने भी कहा है कि मोह (दर्शनमोह-मिथ्यात्व) के विनष्ट हो जाने पर, सम्यग्दर्शन के प्राप्त हो जाने से जिसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान रूप में परिणत हो गया है, वह मुमुक्षु भव्य, राग-द्वेष की निवृत्ति के लिए, चारित्र को स्वीकार करता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्र के पर्यायवाची जिस धर्म का उल्लेख किया है, स्वामी समन्तभद्र ने उसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र स्वरूप ही कहा है, उसे ही कर्मनाशक एवं निधि व निराकुल सुख के स्थानभूत मोक्ष को प्राप्त कराने वाला निर्दिष्ट किया है। श्रमण की सम-स्वरूपता को स्पष्ट करते हुए प्रवचनसार में कहा गया है कि-श्रमण शत्रु-मित्र, सुख-दुःख, प्रशंसा-निन्दा, मिट्टी सुवर्ण तथा जीवन व मरण-इन सब में सम-हर्ष-विषाद से रहित होता है। पुरुष का प्रयोजन स्थिर आत्मस्वरूप को प्राप्त करना है। वह तब सिद्ध होता है जब प्राणी विपरीत अभिप्राय (मिथ्यात्व) को छोड़कर यथार्थरूप में आत्मा के स्वरूप का निश्चय करता हुआ, उससे विचलित नहीं होता है। इसे अमृतचन्द्र सूरि ने पुरुषार्थ-सिद्धि (मुक्ति) का उपाय बताया है। ___ इसका भी यही अभिप्राय है कि जो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के साथ राग-द्वेष के परिहारपूर्वक निश्चल आत्मस्वरूप में अवस्थित होता है, वह अपने प्रयोजन को सिद्ध कर लेता है। आगे पुरुषार्थसिद्धयुपाय में प्रकृत रत्नत्रय के स्वरूप को इस प्रकार अभिव्यक्त किया गया है.-आत्मा के निश्चय को सम्यग्दर्शन, उसी आत्मा के अवबोध को सम्यग्ज्ञान, और उसी आत्मा में स्थिर होने को सम्यक्चारित्र कहा जाता है। ये कर्मबन्ध के अभाव के कारण होकर, संवर और निर्जरा के कारण हैं। इसका कारण यह है कि प्रदेशबन्ध योग से, और स्थितिबन्ध कषाय से हुआ करता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र-ये तीनों न योग-रूप हैं और न कषाय-रूप भी हैं। अतएव उनसे बन्ध की सम्भावना ही कैसे की जा सकती है ? ६ स्वामी समन्तभद्र ने उपर्युक्त निश्चल आत्मस्वरूप की प्राप्ति को आत्यन्तिक स्वास्थ्य बताते हुए, उसे ही आत्मा का प्रयोजन निर्दिष्ट किया है। इसका कारण यह है कि क्षणभंगुर इन्द्रियजनित सुखोपभोग तो उत्तरोत्तर तृष्णा का संवर्धक होने से सन्ताप का ही जनक है, शाश्वतिक सुख का वह कभी कारण नहीं हो सकता। १. प्रवचनसार, १/७ २. रत्नकरण्ड, ४७ ३. रलकरण्ड, २/३ ४. प्रवचनसार, ३/४१ ५. पुरुषार्थसिद्युपाय, १५ ६. वही, २१५-१६ ७. स्वयंभूस्तोत्र, ३१ आचार्य श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212158
Book TitleSamyak Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Samyag Darshan
File Size947 KB
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