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संयम की समानार्थकता
'संयम' यह उक्त चारित्र का प्रायः समानार्थक शब्द है ।' संयम के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए तत्त्वार्थवार्तिक में कहा गया है कि व्रतों के धारण, समितियों के परिपालन, कषायों के निग्रह, मन-वचन-काय की दुष्प्रवृत्तिरूप दण्डों के त्याग और इन्द्रियों के जय का नाम संयम है । '
यही संयम का स्वरूप धवला में भी एक प्राचीन गाथा को उद्धृत करते हुए निर्दिष्ट किया गया है। वहां इतना विशेष स्पष्ट किया गया है कि 'संयम' में उपर्युक्त 'सं' शब्द से द्रव्ययम - सम्यग्दर्शन से रहित महाव्रत- - का निषेध कर दिया गया है। आगे वहां संयत के स्वरूप का निर्देश करते हुए यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के अनुसार जो यत हैं-- अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह से विरत हैं वे 'संयत' कहलाते हैं।"
आचार्य कुन्दकुन्द ने उसी श्रमण को संयत कहा है जो पांच समितियों का पालन करता है, तीन गुप्तियों के द्वारा आत्मा का पापाचरण से संरक्षण करता है, पांचों इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखता है, कषायों पर विजय प्राप्त कर चुका है, शत्रु व मित्र आदि में समभाव रखता है; तथा एकाग्रतापूर्वक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक् चारित्र इन तीनों के एक साथ आराधन में उद्यत रहता है। ऐसा ही 'संयत' परिपूर्ण श्रामण्य (निर्ग्रन्थता) का स्वामी होता है। इसके विपरीत, जो अन्य द्रव्य का आश्रय लेकर राग, द्वेष और मोह को प्राप्त होता है, वह अज्ञानी होकर अनेक प्रकार के कर्मों से सम्बद्ध होता है । कर्मों के क्षय का कारण तो अन्य पदार्थों में राग, द्वेष और मोह का अभाव ही है।*
चारित्र के साथ सम्यग्दर्शन की अनिवार्यता
‘दर्शन-प्राभृत' में चारित्रस्वरूप धर्म को दर्शन-मूलक कहा गया है। इसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार मूल (जड़) के बिना वृक्ष स्थिर नहीं रह सकता, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना चारित्र स्थिर नहीं रह सकता। आगे वहां यह स्पष्ट कर दिया गया है कि दर्शन से जो भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट ही हैं, वे कभी निर्वाण को प्राप्त नहीं हो सकते। इसके विपरीत, जो चारित्र से भ्रष्ट हैं, वे यथासमय निर्वाण को प्राप्त कर लेने वाले हैं (इसके लिए आचार्य समन्तभद्र को उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है) । सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट जीव अनेक प्रकार के शास्त्रों में पारंगत होने पर भी सम्यग्दर्शन-आराधना से रहित होने के कारण, संसार में ही परिभ्रमण करते रहते हैं। "
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आगे इसी 'दर्शन-प्राभृत' में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि मुमुक्षु भव्य, जितना कुछ सदाचरण शक्य हो, उतना करे । पर जिसका परिपालन नहीं किया जा सकता है, उस पर श्रद्धा अवश्य रखे । कारण यह कि केवली 'जिन' ने श्रद्धान करने वाले आत्म-हितैषी के सम्यक्त्व को सद्भाव कहा है । "
लगभग इसी अभिप्राय को अभिव्यक्त करते हुए 'चारित प्राभूत' में भी कहा गया है कि जो सम्यक्त्वाचरण से शुद्ध होते हैं वे विवेकी भव्य यदि संयमाचरण को प्राप्त कर लेते हैं तो शीघ्र निर्वाण को पा लेते हैं । किन्तु जो उस सम्यक्त्वाचरण से भ्रष्ट होते हुए संयमाचरण करते हैं, वे अज्ञानमय ज्ञान में विमूढ़ होने के कारण निर्वाण को प्राप्त नहीं कर पाते हैं । "
यहां यह स्मरणीय है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने चारित्र के दो भेद किये हैं—सम्यक्त्वाचरण चारित्र और संयमाचरण चारित्र | 5 आ० समन्तभद्र ज्ञान और चारित्र की अपेक्षा सम्यग्दर्शन के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार कुशल केवट यात्रियों को नाव के द्वारा नदी के उस पार पहुंचा देता है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन संसार-समुद्र से पार कराने में उस केवट के समान है । अत: वह ज्ञान और चारित्र की अपेक्षा प्रमुखता से आराधनीय है। ज्ञान और चारित्र सम्यक्त्व के बिना न उत्पन्न होते हैं, न वृद्धि को प्राप्त होते हैं, स्थिर रहते हैं, और न अपना फल भी दे सकते हैं, उसी प्रकार जिस प्रकार बीज के बिना वृक्ष । यही कारण है जो वहां मोहवान - दर्शनमोह से आकान्त मिच्या दृष्टिमुनि की अपेक्षा निर्मोह उस दर्शन मोह से रहित सम्यग्दृष्टि गृहस्थ को मोक्ष मार्ग में स्थित बहलाते हुए उसे
१. देखिए - षट्खण्डागमसूत्र १ / १ / १२३ (०१), और तत्त्वार्थसूत्र, ६/१८
२. देखिए, त० वा० ६ / ७ /१८, पृ० ३३०
३. संयमनं संयमः । न द्रव्ययमः संयमः, तस्य 'सम्' शब्देनापादित्वात् । पु० १, पृ० १४४-४५ ( १ / १/४) । 'सम्' सम्यक् सम्यग्दर्शनज्ञानानुसारेण यताः बहिरंगान्तरंगास्रवेभ्यो विरताः संयताः । धवला १० १, पृ० ३६६, (१/१/१२३) ।
४. प्रवचनसार ३ / ४०-४४
५. दर्शन प्राभृत, २-४
६. वही, २२
७. चारित्र प्राभृत ६-१० ८. वही, ५
जैन धर्म एवं आचार
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