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________________ शुश्रूषा श्रघणं चैव, ग्रहणं धारणं तथा / ऊहापोहोऽर्थविज्ञानं, तत्त्वज्ञानं च धीगुणाः / / (क) शुश्रूषा-श्रवण करने की इच्छा होना शुश्रूषा है। इच्छा के बिना सुनने में कोई रस नहीं आता। (ख) श्रवण-शुश्रूषापूर्वक श्रवण करना। इससे सुनते समय मन इधर-उधर नहीं दौड़ता है। एकाग्रता आती है। (ग) ग्रहण-सुनते हुए उसके अर्थ को बराबर समझते जाना। (घ) धारण-समझे हुए को मन में बराबर याद रखना। (ङ) ऊह-सुनी हुई बात पर अनुकूल तर्क दृष्टांत द्वारा विचार करना। (च) अपोह-सुनी हुई बात का प्रतिकूल-तों द्वारा परीक्षण करना कि यह बात कहाँ तक सत्य है? (छ) अर्थविज्ञान-अनुकूल प्रतिकूल तर्कों से जब यह निश्चय हो जाय कि बात सत्य है या असत्य है? यह अर्थ विज्ञान है। (ज) तत्त्वज्ञान-जब पदार्थ का निर्णय हो जाय तब उसके आधार पर सिद्धान्त निर्णय, तात्पर्य निर्णय, तत्त्व निर्णय इत्यादि करना तत्त्व ज्ञान है। (7) प्रसिद्ध-देशाचार का पालन-जिस देश में रहते हो, वहाँ के (धर्म से अविरुद्ध) प्रसिद्ध आचारों का अवश्य पालन करें। सोचने की बात (8) शिष्टाचार-प्रशंसा-हमेशा शिष्टपुरुषों के आचार का अब इन दो मेंढकों की भी सुन लीजिए जो किसी दुग्धशाला प्रशंसक रहें। शिष्टपुरुषों का आचार १-लोक में निन्दा हो, ऐसा म जा ले। कार्य कभी न करना। २-दीन दुखियों की सहायता करना। ३-जहाँ बहुत देर तक बाहर निकलने के लिए व्यर्थ ही हाथ पैर मारने तक हो सके किसी की उचित प्रार्थना भंग न करना। ४-निन्दात्याग। के बाद उनमें से एक टर्राया, "अच्छा हो, हाथ पाँव मारना भी छोड़ ५-गुण-प्रशंसा। ६-आपत्ति में धैर्य। ७-संपत्ति में नम्रता। दें। अब तो हम गए ही समझो।" ८-अवसरोचित्त कार्य। ९-हित-मित-वचन। १०-सत्यप्रतिज्ञ। ११-आयोचित व्यय। १२-सत्कार्य का आग्रह। १३-अकार्य का दूसरे ने कहा, “पाँव चलाते रहो, हम किसी न किसी तरह त्याग। १४-बहुनिद्रा, विषय कषाय, विकथादि प्रमादों का त्याग। __ इस झंझट से निकल ही जाएँगे।" १५-औचित्य आदि शिष्टों के आचार हैं। हमेशा इनकी प्रशंसा "कोई फायदा नहीं," पहला बोला। "यह इतना गाढ़ा है कि करना, ताकि हमारे जीवन में भी ये आ जायें। हम तैर नहीं सकते। इतना पतला भी है कि हम इस पर से छलांग ___ इस प्रकार धार्मिक जीवन के प्रारम्भ में मार्गानसारिता के 35 नहीं लगा सकते। इतना चिकना है कि रेंग कर निकल नहीं सकते। गुणों से जीवन ओतप्रोत होना आवश्यक है। क्योंकि हमारा लक्ष्य हमें देर सबेर हर सूरत में मरना ही है, तो क्यों न आज की ही रात श्रावकधर्म का पालन करते हुए संसार त्याग कर साधु जीवन जीने सही।'' और वह नांद की पेंदी में डूब कर मर गया। का है, वह इन गुणों के अभाव में प्राप्त नहीं हो सकता। इन गुणों लेकिन उसका दोस्त पाँव चलाता रहा, चलाता रहा, चलाता के अभाव में यदि व्यक्ति किसी तरह उस ओर बढ़ भी जाय तो रहा। और सुबह होते न होते वह मक्खन के एक लोदे पर बैठा हुआ भी वहाँ से पुनः उसके पतन की संभावना रहती है। मार्गानुसारी गुणों था जिसे उसने अपने आप मथ कर निकाला था। अब वह शान से का इतना महत्व होते हुये भी कोई जरुरी नहीं है कि इन गुणों वाले बैठा चारों तरफ से टूट कर पड़ रही मक्खियों को खा रहा था। व्यक्ति में सम्यग्दर्शन हो ही। किन्तु इन गुणों की विद्यमानता में दशन हा हो। किन्तु इन गुणों को विद्यमानता में वास्तव में उस नन्हें मेंढक ने वह बात जान ली थी जिसे व्यक्ति सम्यग्दर्शन को पाने योग्य भूमिका पर अवश्य आ जाता है। अधिकांश लोग नलाटाज का जाते है. अगर आप किसी काम इन गुणों से धार्मिक जीवन शोभनीय हो उठता है। में निरंतर जुटे रहें, तो विजयश्री आपके हाथ अवश्य लगेगी। 16, बोनफिल्ड लेन, कोलकाता-१ शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/१२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212157
Book TitleSamyak Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGitika Bothra
PublisherZ_Jain_Vidyalay_Granth_012030.pdf
Publication Year2002
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Samyag Darshan
File Size452 KB
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