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________________ (१०) अतिथि-पूजक-गुरुजन, स्वधर्मी, दीन एवं दुखियों की (२) लज्जा-अकार्य करते हुए लज्जा का अनुभव हो। यथायोग्य सेवा करना। इससे अकार्य करते हुए व्यक्ति रुक जाते हैं। भविष्य में सर्वथा (११) ज्ञानी-चारित्री की सेवा-जो ज्ञानवान, चारित्री, अकार्य का परित्याग हो जाता है। तपस्वी, शीलवान् एवं सदाचारी हों, उसकी सेवा भक्ति करे। (३) सौम्यता-आकृति सौम्य-शान्त हो, वाणी मधुर एवं ८ दोषों का त्याग : शीतल हो, हृदय पवित्र हो। जो व्यक्ति ऐसा होता है, वह सबका (१) निन्दा त्याग—किसी की भी निन्दा न करें। निन्दा महान् स्नेह, सद्भाव एवं सहानुभूति पाता है। दोष है। इससे हृदय में द्वेष-ईर्ष्या बढ़ती है। प्रेमभंग होता है। नीच (४) लोकप्रियता-अपने शील, सदाचार आदि गुणों के द्वारा गोत्र कर्म बंधता है। लोकों का प्रेम संपादन करना चाहिये। क्योंकि लोकप्रिय धर्मात्मा (२) निन्द्य प्रवृत्ति का त्याग-मन, वचन या काया से ऐसी दूसरों को धर्म के प्रति निष्ठावान और आस्थावाला बना सकता है। दूसरा का कोई प्रवृत्ति न करें जो धर्म-विरुद्ध हो। अन्यथा निन्दा होती है, (५) दीर्घदर्शी-किसी भी कार्य को करने से पहिले, उसके पापबंध होता है। परिणाम पर अच्छी तरह विचार करनेवाला हो, जिससे बाद में दुखी (३) इन्द्रिय-निग्रह-अयोग्य विषय की ओर दौडती हुई न होना पड़े। इन्द्रियों को काबू में रखना। इन्द्रियों की गुलामी में न पड़ना। (६) बलाबल की विचारणा–कार्य चाहे कितना भी अच्छा हो (४) आन्तर-शत्रु पर विजय--काम, क्रोध, मद, लोभ, मान किन्तु उसके करने से पूर्व सोचें कि उस कार्य को पूर्ण करने की एवं उन्माद ये छ: आन्तर शत्रु हैं। इन शत्रुओं पर विजय प्राप्त मेरे में क्षमता है या नहीं। अपनी क्षमता का विचार किये बगैर कार्य प्रारम्भ कर देने में नुकसान है। एक तो कार्य को बीच में छोड़ देना करना चाहिए। अन्यथा व्यावहारिक-जीवन में नुकसान होता है और आध्यात्मिक जीवन में पापबंध होता है। पड़ता है, दूसरा लोकों में हँसी होती है। (५) अभिनिवेश त्याग-मन में किसी भी बात का कदाग्रह (७) विशेषज्ञता-सार-असार, कार्य-अकार्य, वाच्य-अवाच्य, लाभ-हानि आदि का विवेक करना, तथा नये-नये आत्महितकारी ज्ञान नहीं रखना चाहिये, अन्यथा अपकीर्ति होती है। सत्य से वंचित रहना प्राप्त करना। सब दृष्टियों से भली प्रकार जान लेना विशेषज्ञता है। पड़ता है। (८) गुणपक्षपात-हमेशा गुण का ही पक्षपाती होना। चाहे (६) त्रिवर्ग में बाधा का त्याग-धर्म, अर्थ, काम में परस्पर फिर वे गुण स्वयं में हों या दूसरों में हों। बाधा पहुँचे, ऐसा कुछ भी नहीं करें। उचित रीति से तीनों पुरुषार्थों ८. साधना :को अबाधित साधना करनेवाला ही सुख शान्ति प्राप्त कर सकता है। (१) कृतज्ञता—किसी का जरा भी उपकार हो तो उसे कदापि (७) उपद्रवयुक्त स्थान का त्याग—जिस स्थान में विद्रोह पैदा नहीं भूलना चाहिये। उसके उपकारों का स्मरण करते हुए यथाशक्ति हुआ हो अथवा महामारी, प्लेग इत्यादि उपद्रव हो गया हो, ऐसे स्थान उसका बदला चुकाने को तत्पर रहना चाहिये। का त्याग कर देना। (२) परोपकार-यथाशक्य दूसरों का उपकार करें। (८) अयोग्य-देश-काल चर्या त्याग-जैसे धर्म विरुद्ध प्रवृत्ति (३) दया-हृदय को कोमल रखते हुए, जहाँ तक हो सके, का त्याग आवश्यक है, वैसे ही व्यवहार शुद्धि एवं भविष्य में पाप तन-मन-धन से दूसरों पर दया करते रहना चाहिये। से बचने के लिये देश, काल तथा समाज से विरुद्ध प्रवृत्ति का त्याग (४) सत्संग-संगमात्र दुख को बढ़ानेवाला है। कहा है भी आवश्यक है। जैसे एक सज्जन व्यक्ति का वेश्या या बदमाशों "संयोगमूला जीवेण पत्ता दुक्ख परंपरा"। किन्तु सज्जन पुरुषों का, के मुहल्ले से बार-बार आना जाना। आधी रात तक घूमना-फिरना सन्तों का संग भवदुख को दूर करने वाला एवं सन्मार्ग प्रेरक होता स्वयं बदमाश न होते हुए भी बदमाशों की संगति करना इत्यादि देश है, अत: हमेशा सत्पुरुषों का सत्संग करना चाहिये। काल एवं समाज के विरुद्ध है, अत: ऐसा नहीं करना चाहिये। (५) धर्मश्रवण-नियमित रूप से धर्मश्रवण करना चाहिये। अन्यथा कलंक इत्यादि की सम्भावना है। जिससे जीवन में प्रकाश और प्रेरणा मिलती रहे। इससे जीवन ८. गुणों का आदर : सुधारने का अवसर मिलता है। (१) पाप भय-"मेरे से पाप न हो जाय" हमेशा यह भय (६) बुद्धि के आठ गुण-धर्म श्रवण करने में, व्यवहार में बना रहे। पाप का प्रसंग उपस्थित हो तो-"हाय, मेरा क्या होगा?" तथा किसी के इंगित. आकार एवं चेष्टाओं को समझने में बुद्धि के यह विचार आये। ऐसी पापभीरूता आत्मोत्थान का प्रथम पाया है। आठ गण होना अति आवश्यक है। विद्वत खण्ड/१२६ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212157
Book TitleSamyak Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGitika Bothra
PublisherZ_Jain_Vidyalay_Granth_012030.pdf
Publication Year2002
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Samyag Darshan
File Size452 KB
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