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________________ गीतिका बोथरा सम्यक् चारित्र सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के अनुसार यथार्थरूप से अहिंसा, सत्य आदि सदाचारों का पालन करना ही सम्यक्चारित्र है। इसके दो भेद हैं। (१) देशविरति और (२) सर्वविरति । १. देशविरति --- देश -अंश, विरति-त्याग अर्थात् हिंसादि पापों का आंशिक त्याग करना तथा व्रतों का मर्यादित पालन करना देशविरति चारित्र धर्म कहलाता है। सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के बाद जीव को संसार, आरंभ, परिग्रह, विषय- विचार इत्यादि जहर जैसे लगते हैं। वह जीव प्रतिदिन विचार करता है कि "कब वह इस पाप भरे संसार का त्याग कर, मुनि बनकर दर्शन, ज्ञान, चारित्र की आराधना करेगा ? यद्यपि वह एकदम संसार का परित्याग करदे, यह सम्भव नहीं होता तथापि विचार ही चलता रहता है और जबतक सर्वतः पापों का त्यागकर साधु- - जीवन न अपना ले तबतक वह जीव शक्य पाप त्याग रूप देशविरति श्रावक धर्म का अवश्य पालन करता है। इसमें सम्यक्त्वव्रत पूर्वक स्थूलरूप से हिंसादि का त्याग तथा सामायिकादि धर्म-साधना करने की प्रतिज्ञा की जाती है। " " मार्गानुसारी जीवन जैसे 'देशविरति' इत्यादि आचारधर्मों की प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन का होना आवश्यक है, वैसे सम्यग्दर्शन से पूर्व 'मार्गानुसारी जीवन' आवश्यक है। सम्यग् दर्शन- ज्ञान- चारित्र, मोक्ष मार्ग है उसके प्रति अनुसरण कराने वाला' उसके लिए योग्य बनाने वाला जीवन मार्गानुसारी जीवन है जैसे महल के लिए शिक्षा - एक यशस्वी दशक Jain Education International मजबूत नींव की आवश्यकता है, वैसे धार्मिक विकास क्रम के लिए मार्गानुसारी जीवन पूर्व भूमिका है। अतः यहाँ देश विरति-धर्म की चर्चा करने से पहिले मार्गानुसारी जीवन के बारे में बताया जाता है। शास्त्र में मार्गानुसारी जीवन के ३५ गुण बताये हैं। इन ३५ गुणों को चार भागों में विभक्त किया जाता है। (१) ११ कर्त्तव्य (२) ८ दोष (३) ८ गुण (४) ८ साधना ११ कर्त्तव्य : (१) न्याय - सम्पत्र - विभव गृहस्थ जीवन का निर्वाह करने के लिये धन कमाना आवश्यक है। किन्तु न्याय-नीति से धन का उपार्जन करना यह मार्गानुसारी-जीवन का प्रथम कर्तव्य है । (२) आयोचित - व्यय - आय के अनुसार ही खर्च करना । तथा धर्म को भूलकर अनुचित खर्च न करना यह 'उचित खर्च' नामक दूसरा कर्तव्य है। (३) उचित - वेश - अपनी मान मर्यादा के अनुरूप उचित वेशभूषा रखना अत्यधिक तड़कीले भडकीले, अंगों का प्रदर्शन हो तथा देखनेवालों को मोड़ व क्षोभ पैदा हो ऐसे वस्त्रों को कभी भी नहीं पहिनना। (४) उचित - मकान — जो मकान बहुत द्वारवाला न हो, ज्यादा ऊँचा न हो तथा एकदम खुला भी न हो ऐसे मकान उचित मकान हैं। चोर डाकुओं का भय न हो। पड़ोसी अच्छे हों, ऐसे मकान में रहना चाहिए। (५) उचित - विवाह — गृहस्थ जीवन के निर्वाह के लिये यदि शादी करना पड़े तो भिन्न गोत्रीय किन्तु कुछ और शील में समान तथा समान आचारवाले के साथ करें। इससे जीवन में सुख-शान्ति रहती है। पति-पत्नी के बीच मतभेद नहीं होता। (६) अजीणे भोजन त्याग - जबतक पहिले खाया हुआ भोजन न पचे तबतक भोजन करें। (७) उचित भोजन — निश्चित समय पर भोजन करें। प्रकृति के 'अनुकूल ही खायें। निश्चित समय पर भोजन करने से भोजन अच्ची तरह पचता है, प्रकृति से विपरीत भोजन करने से तबियत बिगड़ जाती है। भोजन में भक्ष्य - अभक्ष्य का भी विवेक करें। तामसी, विकारोत्पादक एवं उत्तेजक पदार्थों का सर्वथा त्याग करें। (८) माता-पिता की पूजा – माता-पिता की सेवा भक्ति करें। उनके खाने के बाद खायें, सोने के बाद सोयें उनकी आज्ञा का प्रेमपूर्वक पालन करें। (९) पोष्य - पालक पोषण करने योग्य स्वजन- परिजन, दासीदास इत्यादि का यथाशक्ति पालन करें। For Private & Personal Use Only विद्वत खण्ड/ १२५ www.jainelibrary.org
SR No.212157
Book TitleSamyak Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGitika Bothra
PublisherZ_Jain_Vidyalay_Granth_012030.pdf
Publication Year2002
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Samyag Darshan
File Size452 KB
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