SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 5
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अतत् के वचन विलास के रूप में रह जाती है, तब वह मिथ्या अनेकान्त का द्योतक बन जाता है। अनेकांत संशयवाद, या छल को नहीं उत्पन्न करता है अनेकान्त में एकान्त का समन्वय है। णाणाजीवा णाणाकम्भं, णाणाविहं हवे लट्टी। . तम्हा वयणविवादं, सग-पर समएहि वज्जिज्जा॥ सम. 735) . इस संसार में नाना जीव, नाना कर्म और नाना लब्धियां हैं। इसलिए स्वधर्मी या परधर्मी को वचन . विवाद से दूर ही रहना चाहिए। स्याद्वाद एक ऐसी वचन व्यवहार पद्धति है, जिसमें वक्ता का अभिप्राय निर्णयात्मक होता है, यथार्थ, सत्यार्थ, परमार्थ पर आधारित होता है, इस स्थिति में अन्य धर्मों का निषेध नहीं होता है। अनेकान्त व्यवहार और परमार्थ दोनों का आश्रयस्थान है। क्योंकि प्रत्येक वस्तु के अनन्त धर्म होते हैं उन अनन्त धर्मों को अनेकान्त की दृष्टि से स्याद्वाद पद्धति द्वारा समझाया जा सकता है। इस सिद्धान्त में मानवमूल्यों की विशाल दृष्टि है, तात्विक परिवेश सामाजिक विकास में सहयोगी है, राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान में इसकी दृष्टि उन्नत एवं सर्वोपरि है। अतः यह सिद्धान्त मानव की उदात्त-वृत्तियों को जागृत कर समन्वय के कल्याणकारी पथ को प्रदर्शित करता है। पिऊ कुन्ज अरविंदनगर, उदयपुर (राज.) 313001 कोई भी साधक व्रत, उपवास, तपश्चर्या आदि जो कुछ भी करता हैं मन को साधने के लिए ही करता है। इन्द्रिय निग्रट करने का प्रधान उद्देश्य मन का निग्रट करना होता हैं। मन इन्द्रियों का स्वा मा होता हैं, अत: उसे वश में कर लिया जाय तो इन्द्रियाँ अनायास ही वश में हो जाती हैं। मन पर विजय पाना ही आत्म विजय हैं। * युवाचार्य श्री मधुकर मुनि (188) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212141
Book TitleSamanvaya ka Marg Syadwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherZ_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf
Publication Year1992
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Anekantvad
File Size792 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy