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________________ यह व्यवस्था (अस्ति और नास्ति) स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्व. काल, और स्वभाव तथा परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और पर भाव रूप हैं। एकणिरुद्धे इयरो पडिवक्खो अवरे य सम्भावो। सव्वेसिं स सहावे, कायव्वा होइ तह भंगा॥ सम.७२१) अर्थात् वस्तु के एकधर्म को ग्रहण करने पर उसके प्रतिपक्षी दूसरे धर्म का भी ग्रहण अपने आप हो जाता है, क्योंकि दोनों ही धर्म वस्तु के स्वभाव है। अतः सभी वस्तु धर्मों में सप्तभंगी योजना करने योग्य है। स्याद्वाद की सर्वोदय दृष्टि - स्याद्वाद द्वारा कथंचित्, किंचित्, किसी की अपेक्षा, किसी एक दृष्टि, किसी एक धर्म या किसी एक अर्थ का बोध कराया जाता है। स्याद्वाद वस्तु कथन करने की एक पद्धति है जिसमें सह-अस्तित्व का समावेश है। विश्व-शान्ति का परिचायक है। विश्व एक है, राष्ट्र अनेक हैं, इसमें किसी को विरोध नहीं। जब एक दूसरे के प्रति विद्वेष होता है, तब असत् प्रवृत्तियाँ जन्म लेती हैं, एक-दूसरे को समाप्त करने का भाव उत्पन्न होता है। एक व्यक्ति या प्राणी जब अपने प्राणों की रक्षा चाहता है, तब क्या दूसरा नहीं चाहेगा? हाँ, अवश्य। फिर यह क्यों? हमारा व्यवहार, हमारी क्रियाएं और हमारे देखने एवं सोचने-समझने में बदलाव आ जाता है, तब टकराव उत्पन्न हो जाता है। हमारे भीतरी और बाहरी चिन्तन में अन्तर पड़ जाता है। इसलिए यथार्थ को प्रस्तुत करते समय हठ को पकड़कर चलने लगता है, ऐसी स्थिति में न्याय, अन्याय का रूप धारण कर लेता है। सत्य, सत्य नहीं रह जाता, विश्व मैत्री खटाई में पड़ जाती है। इसलिए सूक्ष्मता को समझने के लिए स्याद्वाद की दृष्टि आवश्यक है। स्यात्कार अनुजीवी गुण नहीं? - स्यानिशि नित्यं सदृशं विरूपं वाच्यं न वाच्यं सद्सत्तेव विपश्चितां नाम निवीततत्वमुधोगतोद्गार परम्परेयम्॥ (स्या. म.२५/२९५) प्रत्येक वस्तु कथंचित् अनित्य, कथंचित् नित्य, कथंचित् सामान्य, कथंचित् विशेष, कथंचित् वाच्य, कथंचित् अवाच्य, कथंचित् सत् और कथंचित् असत् है। यह स्यात्कार का प्रयोग धर्मों के साथ होता है, कहीं भी अनुजीवी गुणों के साथ नहीं, क्योंकि स्यात्वाद प्रक्रिया आपेक्षित धर्मों में प्रवर्तित होती है, अनुजीवी गुणों में नहीं। अनेकान्त का व्यवस्थापक स्याद्वाद - एक वस्तु में वस्तुत्व को उत्पन्न करने वाली परस्पर दो विरुद्ध शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकान्त है, जो तत् है, वही अतत है, जो एक है, वही अनेक है जो सत् है, वही असत् है, जो नित्य है वही अनित्य है। धव. १५/२५/१ जिसके सामान्य-विशेष, पर्याय या गुण अनेक अन्त या धर्म है। युक्ति या आगम से अविरुद्ध एक ही स्थान पर प्रतिपक्षी अनेक धर्मों का निरूपण सम्यगनेकांत कहलाने लगता है तथा जब वस्तु तत् या (१८७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212141
Book TitleSamanvaya ka Marg Syadwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherZ_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf
Publication Year1992
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Anekantvad
File Size792 KB
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