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________________ ९८ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ प्रकृत पदार्थ के गुणदोषों के जानने की जिनकी इच्छा है उनके लिए यह स्तोत्र हितान्वेषण के उपाय स्वरूप आपकी गुणकथा के साथ कहा गया है । जैसा कि निम्न पद्य से स्पष्ट हैं न रागान्तः स्तोत्रं भवति भव-पाश-च्छिदि सुनौ । न चान्येषु द्वेषादपगुणकथाऽभ्यास-खलता ॥ किमु न्यायाsन्याय - प्रकृत - गुणदोषज्ञ - मनसां । हितान्वेषोपायस्तव - गुण - कथा - सङ्ग-गदितः ॥६३॥ इस तरह इस ग्रन्थ की महत्ता और गंभीरता का कुछ आभास मिल जाता है किन्तु ग्रन्थ का पूर्ण अध्ययन किये बिना उसका मर्म समझ में आना कठिन है । समीचीन धर्मशास्त्र या रत्नकरण्ड श्रावकाचार इस ग्रन्थ में श्रावकों को लक्ष्य करके समीचीन धर्म का उपदेश दिया गया है, जो कर्मों का विनाशक और संसारी जीवों को संसार के दुःखों से निकालकर उत्तम सुख में स्थापित करनेवाला है । वह धर्म रत्नत्रय स्वरूप है— सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप है — और दर्शनादिक की जो प्रतिकूल या विपरीत स्थिति है वह सम्यक् न होकर मिथ्या है अतएव अधर्म है और संसार परिभ्रमण का कारण है । आचार्य समन्तभद्र ने इस उपाय का अध्ययन ग्रन्थ में श्रावकों के द्वारा अनुष्ठान करने योग्य धर्म का, व्यवस्थित एवं हृदयग्राही वर्णन किया है, जो आत्मा को समुन्नत तथा स्वाधीन बनाने में समर्थ है | ग्रन्थ की भाषा प्राञ्जल, मधुर, प्रौढ और अर्थगौरव को लिए हुए है। यह धर्मरत्न ग्रन्थ का छोटासा पिटारा ही है । इस कारण इसका रत्नकरण्ड नाम सार्थक है । और समीचीन धर्म की देशना को लिए होने के कारण समीचीन धर्मशास्त्र भी है । इस ग्रन्थ का प्रत्येक स्त्री-पुरुष को अध्ययन और मनन करना आवश्यक है । और तदनुकुल आचरण तो कल्याण कर्ता है ही । 1 समन्तभद्र से पहले श्रावक धर्म का इतना सुन्दर और व्यवस्थित वर्णन करने वाला कोई दूसरा ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है | और पश्चात्वर्ती ग्रन्थकारों में भी इस तरह का कोई श्रावकाचार दृष्टिगोचर नहीं होता, और जो श्रावकाचार उपलब्ध हैं वे प्रायः उनके अनुकरण रूप हैं । यद्यपि परवर्ती विद्वानों द्वारा श्रावकाच रचे अवश्य गए हैं पर वे इसके समकक्ष नहीं हैं। इस कारण यह सब श्रावकाचारों में अग्रणीय और प्राचीन हैं । प्रस्तुत उपासकाध्ययन सात अध्यायों में विभक्त है, जिस की श्लोक संख्या देढसौ है । प्रत्येक अध्याय में दिये हुए वर्णन का संक्षिप्त सार इस प्रकार है । प्रथम अध्याय में परमार्थभूत आप्त, आगम और तपोमृत का तीन मूढता रहित, अष्टमदहीन और आठ अंग सहित श्रद्धान को सम्यग्दर्शन बतलाया है । इन सब के स्वरूप का कथन करते हुए बतलाया है कि अंगहीन सम्यग्दर्शन जन्म सन्तति का विनाश करने में समर्थ नहीं होता । शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव भय, आशा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212131
Book TitleSamantbhadra Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size1 MB
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