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________________ 168 सती प्रथा और जैनधर्म : रज्जन कुमार सोलह स्त्रियों को सती कहा गया है और तीर्थंकरों के नाम स्मरण के साथ-साथ इन सोलह सतियों का स्मरण किया जाता है / अब यहाँ प्रश्न यह है कि जब जैनधर्म में सती प्रथा को प्रश्रय नहीं दिया गया, तो इन सतियों को इतना आदरणीय स्थान क्यों प्रदान किया जाता है ? प्रत्युत्तर में यही कहा जा सकता है कि उनका आचरण एवं शीलरक्षण के जिन उपायों का इन्होंने आलम्बन लिया, उसी के कारण इन्हें इतना आदरणीय स्थान प्रदान किया जाता है। इन्हें सती इसीलिए भी कहा जाता है क्योंकि इन स्त्रियों ने अपने शील की रक्षा हेतु आजीवन अविवाहित जीवन बिताया था, पति की मृत्यु के पश्चात् भी अपने शील को सुरक्षित रख सकीं। वर्तमान में जैन साध्वियों के लिए 'महासती' शब्द का प्रयोग किया जाता है, उसका मुख्य आधार शील का पालन है। जैन आगमिक व्याख्याओं और पौराणिक रचनाओं के पश्चात् जो प्रबन्ध-साहित्य लिखा गया उल्लिखित है कि तेजपाल और वस्तूपाल की मृत्यु के उपरान्त उनकी पत्नियों ने अनशनपूर्वक अपने प्राण का त्याग किया था / यहाँ पति की मृत्यु के पश्चात् शरीर-त्यागने का उपक्रम तो है, किन्तु उसका स्वरूप सौम्य बना दिया गया है / वस्तुतः यह उस युग में प्रचलित सती-प्रथा की जैनधर्म में क्या प्रतिक्रिया हुई थी, उसका सूचक है। अब यहाँ एक विचारणीय प्रश्न है कि सती जैसी प्रथा का इतना कम प्रचलन जैनधर्म में क्यों रहा ? इस बारे में तो यही कहा जा सकता है कि जैन भिक्षुणी संघ इसके लिए उत्तरदायी रहा / क्योंकि स्त्रियों के लिए शरणस्थल होता था जो विधवा, परित्यक्ता अथवा आशयहीना होती थी। जब कभी भी ऐसी नारी पर किसी तरह का अत्याचार किया जाता था जैन भिक्ष णी संघ उनके लिए कवच बन जाता था। क्योंकि भिक्षुणी संघ में प्रवेश करने के बाद स्त्रियाँ पारिवारिक उत्पीड़न से बचने के साथ ही साथ एक सम्मानपूर्ण जीवन व्यतीत करती थीं। आज भी ऐसी बहुत सी अबलाएँ हैं जो कुरूपता, धनाभाव तथा इसी तरह की अन्य समस्याओं के कारण अविवाहित रहने पर विवश हैं ऐसी कुमारी, अबलाओं के लिए जैन भिक्ष णी संघ आश्रय स्थल है / जैन भिक्षणी संघ ने नारी गरिमा और उसके सतीत्व की रक्षा की जिसके कारण सती-प्रथा जैसी एक कुत्सित परम्परा का जैनधर्म में अभाव रहा / - इसी सन्दर्भ में यह विचार कर लेना भी उपयुक्त जान पड़ता है कि सती जैसी प्रथा का प्रचलन हिन्दू धर्म में क्यों इतने व्यापक पैमाने पर चलता रहा। यहाँ यही कहा जा सकता है कि हिन्दू धर्म में भी कायम रहती तो निस्संदेह इतने अधिक सती के उदाहरण हिन्दू परम्परा में नहीं मिलते / 00 1. प्रबन्धकोश, पृ० 126 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212118
Book TitleSatipratha aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRanjankumar
PublisherZ_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf
Publication Year1989
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Society
File Size417 KB
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