Book Title: Satipratha aur Jain Dharm
Author(s): Ranjankumar
Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf

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Page 1
________________ सती होने का अर्थ है विधवा स्त्री का अपने पति की चिता में जीवित जल जाना। इसे सहमरण, सहगमन, अनुमरण या अन्वारोहन आदि नामों से भी जाना जाता है। इस प्रक्रिया में दो स्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं—पहली स्थिति में विधवा को उसकी इच्छा सती प्रथा और जैनधर्म के विरुद्ध चिता में प्रवेश करने के लिए विवश किया जाता हो और दूसरी स्थिति में विधवा स्वेच्छापूर्वक सती होती हो । प्राचीनकाल में सती प्रथा को साधारण सी घटना माना गया था। जहाँ हिन्दू-धर्म में सती प्रथा से सम्बन्धित घटनाओं का उल्लेख बहुतायत से है, वहीं जैन धर्म में यह आपवादिक घटनाओं के रूप में उल्लिखित हुआ है। __ अगर हम हिन्दू धर्म-ग्रंथों पर दृष्टिपात करें तो हमारे समक्ष सती प्रथा का वर्णन करने वाले तीन तरह के ग्रन्थ प्रस्तुत होते हैं । (क) प्रथम कोटि में वे हिन्दू-धर्मग्रन्थ आते हैं जो सती प्रथा का समर्थन नहीं करते हैं। ___ (ख) दूसरी कोटि में सती प्रथा का अस्पष्ट ढंग से समर्थन करने वाले हिन्दू-धर्म-ग्रन्थ आते हैं।' रज्जन कुमार (ग) तीसरी कोटि में सती-प्रथा का स्पष्ट रूप से समर्थन करने (शोधछात्र पार्श्वनाथ : विद्याश्रम शोध- वाले ग्रन्थ आते हैं । संस्थान, वाराणसी) लेकिन सती-प्रथा के सम्बन्ध में जैनधर्म से सम्बन्धित ग्रन्थों में इस तरह का विभेद नहीं मिलता है । पहली बात तो यह कि जैनागमों में इस प्रथा का अभाव ही है, लेकिन अगर कुछ है भी तो उसे अपवाद के तौर पर ही लिया जा सकता है।। ___ 'निशीथचूणि' में लिखा गया है कि सोपारक के पाँच सौ व्यापारियों को कर नहीं देने के कारण राजा ने उन्हें जीवित जला देने का आदेश दिया। उक्त आदेशानुसार उन पांच-सौ व्यापारियों को जिन्दा जला दिया गया था और उन व्यापारियों की पत्नियाँ भी उनकी चिताओं में जल गई थी। इसी प्रकार का एक विवरण 'प्रश्नव्याकरण' में भी मिलता है । इस ग्रन्थ के अनुसार “चालुक्य देश की नारियां पति की मृत्यु के बाद आत्मदाह करती थी। परन्तु जैनाचार्य इसका समर्थन नहीं करते हैं। १. भारद्वाज गृह्यसूत्र १, २ । २. अथर्ववेद १८, ३, १, २ कौशिक गृह्यसूत्र ५, ३, ६ विष्णु धर्मसुत्र, २५/१४, ___बृहस्पति स्मृति, २५/११, व्यास स्मृति ३. मिताक्षरा, ८६, बृहत्पाराशर स्मृति, दक्षस्मृति, पाराशर स्मृति, ३२, ३३ जीवानन्द, १, पृ० ३६५ ४. निशीथचूणि, भाग २ पृ० ५६-६०, निशीथचूणि, भाग ४ पृ० १४, ५. प्रश्नव्याकरण २/४/७ ( १६६ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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