Book Title: Satipratha aur Jain Dharm
Author(s): Ranjankumar
Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf

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Page 2
________________ खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि १६७ पुनः इस आपवादिक उल्लेख के अतिरिक्त हमें जैन साहित्य में इस प्रकार के उल्लेख नहीं मिलते हैं । “महानिशीथ" में एक विवरण मिलता है जिसके अनुसार किसी राजा की विधवा कन्या सती होना चाहती थी, किन्तु उसके पितृकुल में इस प्रथा का प्रचलन नहीं था । अतः अंत में उसने अपना यह विचार त्याग दिया। इस विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनाचार्यों ने पति की मृत्यु के बाद स्वेच्छापूर्वक देहत्याग को अनुचित माना है और इस प्रकार के मरण को 'बाल-मरण' या 'लोकमूढ़ता' कहा है । सती प्रथा का धार्मिक समर्थन जैन आगम साहित्य और उसकी व्याख्याओं में कहीं नहीं मिलता है। ___'आवश्यक चूणि' में दधिवाहन की पत्नी एवं चन्दना की माता आदि के कुछ ऐसे उदाहरण अवश्य मिलते हैं जिनमें बह्मचर्य की रक्षा के निमित्त देह-त्याग किया गया है। परन्तु यह देह-त्याग सती-प्रथा की अवधारणा से अलग है । जैनधर्म यह नहीं मानता है कि मृत्यु के बाद पति का अनुगमन करने से अर्थात् जीवित चिता में जल जाने से पुनः स्वर्गलोक में उसी पति की प्राप्ति होती है। लेकिन हिन्दू धर्म में ऐसा विश्वास किया जाता है । जैन धर्म अपने कर्म सिद्धान्त के प्रति आस्था रखता है और यह मानता है कि पति-पत्नी अपने-अपने कर्मों और मनोभावों के अनुसार ही विभिन्न योनियों में जन्म लेते हैं । यद्यपि परवर्ती जैन-कथा-साहित्य में हमें ऐसे उल्लेख मिलते हैं जहाँ एक भव के पति-पत्नी आगामी भवों में जीवन-साथी बने, किन्तु इसके विरुद्ध भी उदाहरणों की जैन-कथासाहित्य में कमी नहीं है। अतः यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि धार्मिक आधार पर जैन-धर्म सती-प्रथा का समर्थन नहीं करता । जैन-धर्म के सती-प्रथा के समर्थक न होने के कुछ सामाजिक कारण भी हैं । व्याख्या साहित्य में ऐसी अनेक कथाएँ वर्णित हैं जिनके अनुसार पति की मृत्यु के पश्चात् पत्नी न केवल पारिवारिक दायित्व का निर्वाह करती थी, अपितु पति के व्यवसाय का संचालन भी करती थी। अनुत्तरोपपातिक में एक उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार एक सार्थवाह की पत्नी विधवा होने पर स्वयं व्यापार का संचालन करती थी। उत्तराध्ययन में लिखा हुआ है कि पुत्रहीना अयश पुत्र के वयस्क न होने की स्थिति में विधवा रानी मंत्री के माध्यम से राज्य कार्य का संचालन करती थी। इसके अतिरिक्त जैनागमों और उसकी व्याख्याओं में ऐसे अनेक सन्दर्भ मिलते हैं जहां कि विधवा भिक्षणी बन जाती थी। उदाहरणस्वरूप मदनरेखा के पति की हत्या उसके भाई ने कर दी। इस घटना से दुःखी होकर वह भिक्षुणी बन गई । इसी तरह दुःखी या किसी तरह की विरक्ति के कारण विधवाएँ सती न होकर भिक्ष णी बन जाती थीं । मदनरेखा की ही तरह यशभद्रा,' पद्मावती आदि स्त्रियों का उदाहरण हमारे सामने प्रस्तुत होता है । 'ज्ञाताधर्म कथा' में पोटिला तथा सुकुमालिका10 के भिक्ष णी बनने के प्रसंग का वर्णन मिलता है। यद्यपि जैन परम्परा में ब्राह्मी,11 सुन्दरी12 वसुमती13 राजमती14 द्रौपदी पद्मावती18 आदि १. महानिशीथ, पृ० २६, वि० द्र० जैनागम साहित्य में भारतीय समाज पृ० २६९ २. आवश्यकचूणि, भाग १, पृ० ३१८ ३. पाराशरस्मृति, ३२, ३३ ४. अनुत्तरोपपातिक, ३१६ ५. उत्तराध्ययनसूत्र, १३ ६. उत्तराध्ययन नियुक्ति, पृ० १३६-१४० ७. आवश्यक नियुक्ति, १२८३ ८. आवश्यक चूणि भाग २, पृ० १८३ ६. ज्ञाता धर्मकथा, १/१४ १०. ज्ञाताधर्मकथा, १/१६ ११. श्री सोलह सती, पृ० १-५ १२. श्री सोलह सती पृ० ६.१२ १३. श्री सोलह सती पृ० १३-६४ १४. श्री सोलह सती पृ० ६५-६१ १५. श्री सोलह सती पृ० १८२ १६. श्री सोलह सती www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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