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मिलती है।
कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
ये सभी ग्रन्थ स्वयं हेमचन्द्रसूरि ने अपने ही व्याकरण पर लिखे। इनके अतिरिक्त भी बहुत से टीका ग्रन्थ इस पर लिखे गये, जिनका यहाँ संक्षिप्त उल्लेख ही पर्याप्त होगा ।
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१. स्पायसारसमुहार कनकप्रभरि ने वृहन्यास को संक्षिप्त कर १२वीं शती में इसकी रचना की।
२. लघुन्यास - आचार्य रामचन्द्रसूरि ने वि० १३वीं शताब्दी में इस ग्रन्थ की रचना की ।
२. घन्यास धर्मोपरि द्वारा रचित
४. न्यासोद्धार टिप्पण - अज्ञात आचार्य द्वारा रचित इस ग्रन्थ की वि०सं० १२७० की हस्तलिखित प्रति
५. हेमदुष्टिका - इस २३०० श्लोकात्मक ग्रन्थ के रचनाकार उदयसौभाग्य थे I
६. अष्टाध्यायतृतीयपदवृत्ति- रचयिता आचार्य विनयसागरसूरि ।
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७. हेमलघुवृत्तिअवचूरि- २२१३ श्लोकात्मक ग्रन्थ की रचना धनचन्द्र द्वारा की गई। इसकी १४०३ में लिखी हुई एक प्रति मिलती है ।
चतुष्कवृत्ति अवचूरि- अज्ञात लेखक द्वारा ।
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६. लघुवृत्तिअवचूरि- -नन्दसुन्दर मुनि द्वारा रचित इस ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रति मिलती है ।
१०. हेमलघुवृत्ति दुण्डिका- ३२०० श्लोक प्रमाणात्मक इस ग्रन्थ की रचना मुनिशेखर मुनि ने की
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११. ढुण्डिका दीपिका - इसके रचयिता कायस्थ अध्यापक काषल थे, जो हेमचन्द्र के समकालीन थे । ग्रन्थ ६००० श्लोक परिमाण है ।
१२. बृहद्वृत्तिसारोद्वार - किसी अज्ञात लेखक द्वारा रचित इसकी दो हस्तलिखित प्रतियाँ वि० सं० १५२१ में लिखी हुई मिलती हैं ।
१२. बृहद्वृत्ति अपूर्णिका- वि०सं० १२६४ में अमरचन्द सूरि ने इस ग्रन्थ की रचना की। लेखक ने इसमें कई बातें नवीन कही हैं तथा बहुत अंगों में यह कनकप्रभसूरिकृत लघुन्यास से मिलता है।"
१४. बृहद्वृदिका - ८००० श्लोकात्मक इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० १५८१ में मुनि सौभाग्यसागर नेकी ।
१५, बृहदुति दीपिका - इसके रचयिता विद्याधर थे ।
१६. बृहद् वृत्तिटिप्पन - अज्ञातनामा विद्वान द्वारा वि०सं० १६४६ में रचित ।
१७. क्रियारत्नसमुच्चय-- इस ग्रन्थ के रचयिता आचार्य गुणरत्नसूरि थे। इसमें सिद्धहेमशब्दानुशासन में आये धातुओं के दस गण तथा सन्नन्तादि प्रक्रिया के रूपों की साधनिका को सूत्रों के साथ समझाने का यत्न किया गया है। सौधातुओं के सब रूपाख्यानों को विस्तारपूर्वक समझा दिया गया है। ग्रन्थ के अन्त में प्रशस्ति में कर्ता और कृति का विस्तृत परिचय दिया गया है। इस सम्बन्ध में निम्न पद्य द्रष्टव्य है-
काले पूर्व १४६६) वत्सरमिते श्रीविक्रमागते, गुर्वादेशविमृश्य च सदा स्वान्योपकारं परम् ।
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ग्रन्थं श्रीगुणरत्नसूरिरतनोत् प्रज्ञाविहिनोप्यमुं निर्हेतुप्रकृति प्रधानजननैः शोध्यस्त्वयं धीधनैः ॥
१८. स्यादिसमुच्चय - इस ग्रन्थ की रचना अमरचन्दसूरि ने १३वीं शताब्दी में की। यह ग्रन्थ सि० श० के अध्येताओं के लिए बड़ा उपयोगी है। भावनगर की यशोविजय जैन ग्रन्थमाला से यह छप गया है।
१. यह ग्रन्थ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड की ओर से छपा है ।
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