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संस्कृत - जैन- व्याकरण- परम्परा
अर्थ स्पष्ट है । यह वृत्ति ६०००० श्लोक परिमाण है । अजितसेन नामक विद्वान् से इस पर मणिप्रकाशिका नाम की टीका लिखी ।
प्रक्रिया संग्रह
अभयचन्द्र नामक आचार्य ने शाकटायन के व्याकरण को प्रक्रियाबद्ध किया ।
रूपसिद्धि
afasसंघ के आचार्य दयापाल ने शाकटायन व्याकरण पर एक छोटी सी टीका लिखी । दयापाल आचार्य का समय वि०सं ११०० के आसपास है । इनका यह ग्रन्थ प्रकाशित है ।
गणरत्नमहोदधि
गोविन्दसूरि के शिष्य वर्धमान सूरि नामक श्वेताम्बर आचार्य ने शाकटायन व्याकरण में आये हुए गणों का संग्रह करके इस ग्रन्थ की रचना की । इसका रचनाकाल वि० सं० १९९७ है । इसमें गणों को श्लोकबद्ध करके गण के प्रत्येक पद की व्याख्या के साथ उदाहरण भी दिये गये हैं । इस पर उनकी स्वोपज्ञ टीका भी है । ग्रन्थ के रचनाकाल का उन्होंने स्वयं ही निम्न श्लोक में उल्लेख किया है
सप्तनवत्यधिकेष्वेकादशसु
शतेष्वतीतेषु । वर्षाणां विक्रमतो, गणरत्नमहोदधिविहितः ॥
इन सभी टीका ग्रन्थों के शाकटायनन्यास, भावसेन त्रेवैद्य की से ही सम्बन्धित हैं।
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युधिष्ठिर मीमांसक इसे शाकटायन व्याकरण पर आधारित न मानकर वर्धमान सूरि द्वारा संपादित स्वरचित व्याकरण के आधार पर ही इसकी रचना मानते हैं ।" डॉ० जानकीप्रसाद द्विवेदी ने इसे सभी ग्रन्थों का सार लेकर बनाया हुआ स्वतन्त्र व्याकरण का ग्रन्थ माना है । इस सम्बन्ध में उन्होंने इसी का एक श्लोक भी उद्धृत किया है
निचित्वा शब्दशास्त्राणि प्रयोगानुपलक्ष्य च । स्वशिष्य प्रार्थिताः कूर्मो गणरत्नमहोदधिम् ॥
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अतिरिक्त स्वयं पाल्य कीति द्वारा रचित लिगानुशासन और धातुपाठ, प्रभाचन्द्रकृत टीका, अज्ञात लेखक की शाकटायन तरंगिणी आदि ग्रन्थ भी शाकटायन व्याकरण
सिद्धमशब्दानुशासन की टीकाएँ
जैन व्याकरण- परम्परा में यह व्याकरण बहुत प्रसिद्ध और प्रिय रहा है। इसी कारण इस ग्रन्थ पर सबसे अधिक टीका ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं । इस पर अनेक टीका ग्रन्थ स्वयं हेमचन्द्राचार्य ने लिखे थे। उनके द्वारा रचित ग्रन्थ निम्नलिखित है
१. स्वोपशलघुवृत्ति - ६००० हजार श्लोक परिमाण का वृत्ति ग्रन्थ ।
२. स्वोपज्ञमध्यमवृत्ति - ८००० श्लोक परिमाण ।
३. रहस्यत्ति २५ हजार श्लोक परिमाण ।
४. बृहद्वृत्ति (तत्त्वप्रकाशिका) १२००० श्लोक परिमाण की इस वृत्ति में अमोघवृत्ति का सहारा लिया गया है ।
५. बृहन्न्यास ( शब्दमहार्णवन्यास ) ८४००० श्लोक परिमाण का यह ग्रन्थ पूरा नहीं मिलता है ।
१. युधिष्ठिर मीमांसक संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास भाग १ १०५६२. २. संस्कृत प्राकृत जैन व्याकरण और कोश परम्परा, पृ० १३५.
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