________________ ऋग्वेद में अर्हत् और ऋषभवाची ऋचायें : एक विमर्श 641 प्र दीधितिर्विश्र्ववारा जिगाति होतारमिलः प्रथमं यजध्यै। से युक्त हुए। जिस प्रकार वर्षा करने वाला मेघ (वृषभ) पृथ्वी की प्यास अच्छा नमोभिवृषभं वन्दध्यै स देवान्यक्षदिषितो यजीयान्।। बुझाता है उसी प्रकार वे पूर्वो के ज्ञान के द्वारा जनता की प्यास को बुझाते (3.4.3) हैं। हे वृषभ ! आप राजा और क्षत्रिय हैं तथा आत्मा का पतन नहीं होने समग्र संसार के द्वारा वरेण्य तथा प्रकाश को करने वाली बुद्धि देते हैं। सबसे प्रथम पूजा करने के लिए ज्योति स्वरूप ऋषभ के पास जाती यदन्यासु वृषभो रोरवीति सो अन्यस्मिन्यूथ नि दधाति रेतः। है। उस ऋषभ की वन्दना करने के लिए हम नमस्कार करते हुए उसके स हि क्षपावान्त्स भगः स राजा महदेवानामसुरत्वमेकम। पास जायें। हमारे द्वारा प्रेरित होकर वह भी पूजनीय देवों की पूजा करें। (3.55.17) अषालहो अग्ने वृषभो दिदीहि पुरो विश्वाः सौभगा सजिगीवान्। जिस प्रकार वृषभ अन्य यूथों में जाकर डकारता है और अन्य यज्ञस्य नेता प्रथमस्य पायोजातवेदो बृहतः सप्रणीते।। यूथों में जाकर अपने वीर्य को स्थापित करता है। उसी प्रकार ऋषभदेव (3.15.4) भी अन्य दार्शनिक समूह में जाकर अपनी वाणी का प्रकाश करते हैं और हे अपराजित और तेजस्वी ऋषभ! आप सभी ऐश्वर्यशाली अपने सिद्धान्त का स्थापन करते हैं। वे ऋषभ कर्मों का क्षपन करने वाले नगरों में धर्म युक्त कर्मों का प्रकाश कीजिए। हे सर्वज्ञ ! आप अहिंसा अथवा संयमी अथवा जिनका प्रमाद नष्ट हो ऐसे अप्रमत्त भगवान, राजा, धर्म के उत्तम रीति से निर्णायक हुए, आप ही त्याग मार्ग के प्रथम नेता देवों और असुरों में महान् हैं। हैं। (ज्ञातव्य है कि यहां यज्ञ शब्द को त्याग मार्ग के अर्थ में ग्रहीत किया चत्वारि श्रृंड त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य। गया है।) त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मां आ विवेश।। मरुत्वन्तं वृषभं वावृधानमकवारिं दिव्यं शासमिन्द्रम। (4.58.3) विश्र्वासाहमवसे नूतनायोग्रं सहोदामिह त्वं हुवेम।। वे ऋषभ देव अनन्त चतुष्टय रूपी चार श्रृङ्गो से तथा सम्यक् (3.47.5) ज्ञान, दर्शन एवं चारित्ररूपी तीन पादों से युक्त हैं। ज्ञानोपयोग व मरुत्वान, विकासमान, अवर्णनीय दिव्य शासक, सभी (कर्म) दर्शनोपयोग ऐसे दो सिरों, पाँच इन्द्रियों, मन एवं बुद्धि शत्रुओं को हराने वाले वीर ऋषभ को हम आत्म-रक्षण के लिए यहाँ से युक्त हैं। वे तीन योगों से बद्ध होकर मृत्यों में निवास करते हैं। वे महादेव आमंत्रित करते हैं। ऋषभ अपनी वाणी का प्रकाशन करते हैं। सद्यो ह जातो वृषभः कनीनः प्रभर्तुभावदन्धसः सुतस्य। सन्दर्भ साधोः पिब प्रतिकामं यथा ते रसाशिरः प्रथमं सोम्यस्य।। डॉ. सागरमल जैन, जैन, बौद्ध और मीता का साधना (3.48.1) मार्ग, राजस्थान प्राकृत भारती, जयपुर 1982, पृ. उत्पन्न होते ही महाबलवान, सुन्दर व तरुण उन वृषभ ने भूमिका पृ. 6-10 अन्नदान करने वालों का तत्काल रक्षण किया। हे जिनेन्द्र ऋषभ ! समता 2. निग्गंथ सक्क तावस गेरुय आजीव पंचहा समणा-पिण्डनियुक्ति, रस के अन्दर मिलाये मिश्रण का आप सर्वप्रथम पान करें। 445, नियुक्तिसंग्रह सं. विजय जिनेद्र सूरीश्वर, श्री हर्ष पुष्पामृत पतिर्भव वृत्रहन्त्सूनृतानां गिरां विश्वायुर्वृषभो वयोधाः। जैन ग्रन्थ माला, लाखाबाबल; जामनगर। आ नो गहि सख्येभिः शिवेभिर्महान्महीभिरुतिभिः सरण्यन।। 3... (अ) निग्गंथ धम्मम्मि इमा समाही, सूयगडो, जैन विश्वभारती, _ (3.31.18) लाउँनू, 2 / 6 / 42 महाँ उग्रो वावृधे वीर्याय समाचक्र वृषभः काव्येन। (ब) निगण्ठो नाटपुत्तो- दीघनिकाय, महापरिनिव्वाण सुत्तइन्द्रो भगो वाजदा अस्य गावः प्रजायन्ते दक्षिणा अस्यपूर्वीः / सुभधपरिव्वाजकवत्थुन, 3 / 23 / 86 (3.36.5) (स) निगंठेसु पि मे कटे इमे वियापटा होहंति- जैन प्रजा और दान पूर्वकाल से ही प्रसिद्ध है। शिलालेखसंग्रह भाग-२, लेख क्रमांक-१ (ज्ञातव्य है कि ऋषभ प्रथम शासक थे और उन्होंने अपनी प्रजा 4. इसिभासियाई सुत्ताई - प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, 1988 को सम्यक् जीवन शैली सिखायी थी तथा दीक्षा के पूर्व विपुल दान दिया देखें- भूमिका, सागरमल जैन, पृ.१९-२० (सामान्यतया था। इसी दृष्टि से यहाँ कहा गया है कि उनकी प्रजा (गाव) एवं दान पूर्व सम्पूर्ण भूमिका ही द्रष्टव्य है). से ही प्रसिद्ध है। ज्ञातव्य है कि ऋग्वेद, 1085 / 4 में बार्हत शब्द तो मिलता असूत पूर्वो वृषभो ज्यायानिमा अस्य शुरुधः सन्ति पूर्वीः। है किन्तु आहेत शब्द नहीं मिलता है, यद्यपि अर्हन् एवं 'अर्हन्तो' दिवो नपाता विदथस्य धीभिः क्षत्रं राजाना प्रदिवो दधाथे।। शब्द मिलते हैं, किन्तु ब्राह्मणों, आरण्यकों आदि में आहत और (3.38.5) बार्हत दोनों शब्द मिलते हैं। उन श्रेष्ठ ऋषभदेव ने पूर्वो को उत्पन्न किया अथवा वे पूर्व ज्ञान 6. देखें- सुतं मेतं भन्ते-वज्जी यानि तानि वज्जीनं वज्जिचेतियानि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org