________________ श्रमण-साधना / 295 है, सर्वत्र सम रहता है वह 'समण' है / सूत्रकृताङ्ग में भी बताया गया है कि प्रासक्ति रहित होकर किसी भी प्रकार का परिग्रह नहीं रखता, किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करता, झूठ नहीं बोलता, काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, राग, द्वेष तथा प्राणातिपात आदि जितने भी कर्मादान और आत्मा के पतन के हेतु हैं, उन सबसे निवृत्त रहता है तथा जितेन्द्रिय, शुद्ध संयमी व ममत्व से रहित है वही समण है / भगवान बुद्ध ने भी 'धम्मपद' में इसी भाव को व्यक्त किया है यथा: न मुण्डकेन समणो, अव्वतो अलिकं मणो। इच्छालोभसमापन्नो, समणो कि भविस्सति // ' तथ्यत: श्रमण श्रमणी का कठोरतम तपोमयी जीवन समाज में आध्यात्मिकता के उत्थान, नैतिकता के निखार, सर्वाङ्गीण समानता के संवार हेतु समर्पित होता है। युगनिर्माण का बहुत बड़ा उत्तरदायित्व इस वर्ग पर है जबकि आज का अणु-पाकुल अंतस शांति की खोज में भटक रहा है। वैभव विलास की चकाचौंध में भागती हुई पीढ़ी के लिए तो आज अध्यात्म व संयम का सम्बल और भी आवश्यक है / अत: मानवता के कल्याण हेतु स्वयं को तपाकर सदाचार की सुधा प्रवाहित करना श्रमण-श्रमणी (साधु-साध्वी) का उत्तरदायित्वपूर्ण पावन कर्तव्य है। "श्रमण" का स्त्रीलिंग प्राकृत में “समणी" है तथा संस्कृत में श्रमणी, श्रमणा, श्रवणा है / "श्रमणा"-कुमारी साध्वी तथा श्रमणी-सुहागिन स्त्री साध्वी / कहने का तात्पर्य है कि स्त्री श्रमणों को 'श्रमणा' व 'श्रमणी' शब्द से सम्बोधित करते हैं यथा:"पदमाख्या श्रमणीमुख्या विश्राण्य श्रमणीपदम्"२ तथा "श्रमणा धर्मनिपुणामभिगच्छति राघव" अनेक उल्लेखों से यह ज्ञात होता है कि जो स्त्री-पुरुष कुमारावस्था में ही श्रमण दीक्षा ग्रहण कर लेते थे वे क्रमशः कुमारश्रमणा और कुगारश्रमण कहे जाते थे यथा “कुमार: श्रमणादिभिः" तथा "कुमारः श्रमणादिना" / वैदिक ग्रन्थों में भी इस शब्द का प्रयोग कठोरतम साधना के परिप्रेक्ष्य में किया गया है / श्रमण साधना का गंभीर विषय अत्यधिक गरिमामय व विस्तीर्ण है किन्तु संक्षिप्ततः इस छोटे से लेख में मुझे यही कहना है कि 'श्रमणसाधना अत्यधिक कठोर व लोकोपकारी है। मानवता के मंगल हेतु श्रमण-श्रमणी कठोरतम साधना करके अपनी कंचन सी काया को तप की लौ में तपाकर ऐसा रूप प्रदान करते हैं जिसके प्रवचन के श्रवण तथा दर्शन से ही मनुष्य का माकुल अंतस जुड़ जाता है और वह असीम सुख शांति की अनुभूति करता है। अत: प्राज के प्रण प्रायुधों की होड़ में, भौतिकता व वैभव के भटकाव में, दिन प्रतिदिन बढ़ती हिंसात्मक प्रवृत्ति के शमन हेतु, साधु-सन्तों का कृपा-सम्बल संसार के लिए वरदानस्वरूप सिद्ध हो सकता है, जिसके लिए समष्टिमय प्रयास आवश्यक है। पांच व्रतों का प्रचार-प्रसार करके मानवता के मंगल का आह्वान आज की अनिवार्यता है। 0 -46, फतेहगढ़, भोपाल (म. प्र.) 1. धम्मपद (धम्मट्ठवग्ग) 9-10 2. क्षत्रचूडामणि-११-१६ 3. वाल्मीकि रामायण-१-१-५६ धम्मो दीवो संसारसम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.