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श्रमण-साधना
डॉ० शोभनाथ पाठक
मानव को मानवता की तुला पर गुरुतर होने के लिए साधना-सम्पन्नता अपेक्षित है। साधनापथ कंटकाकीर्ण अवश्य होता है किन्तु साधक के कठोर तप-संयम-संकल्प आदि के समन्वयात्मक सम्बल से पथ का प्रशस्त होना स्वाभाविक है और साधक अपने गन्तव्य तक पहुंच जाता है। भगवान् महावीर ने भी सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य की वरीयता को समझाते हुए प्रत्येक साधक के लिए आवश्यक बताया है। साधक की साधना व प्रात्मविश्वास पर समस्त सिद्धियां उसके चरण चमती हैं। अर्हन्त भी केवलज्ञान और सिद्धि प्राप्त करने के लिए किसी अन्य की सहायता न लेकर स्वयं की साधना से केवलज्ञान प्राप्त करते हैं । तभी तो कहा गया है
नापेक्षा चक्रिरेऽर्हन्तः परसाहायिक क्वचित् , केवलं केवलज्ञानं, प्राप्नुवन्ति स्ववीर्यतः ।। स्ववीर्येणैव गच्छंति जिनेन्द्राः परमं पदम् ।'
तात्पर्य यह है कि जैन धर्म में कठोरतम संयम-साधना को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है, जिसके सम्बल से श्रमण-श्रमणी (साधु-साध्वियाँ) असीम प्राध्यात्मिक उपलब्धियाँ अजित कर समाज को संवारते हुए अंततः परमपद (निर्वाण) को प्राप्त करते हैं।
श्रमण-साधना प्राणियों के अभ्युदय को जो उत्कर्ष प्रदान करती है, संभवतः अन्यत्र ऐसी महत्ता नहीं है। भगवान महावीर ने लोकोपकार की भावना से तभी तो चतुर्विध संघ की व्यवस्था का उपदेश दिया था जिसको तीर्थ व महातीर्थ की महत्ता प्रदान की गयी है। यथा
तित्थं पुण चाउवन्नाइन्ने समणसंघो,
तंजहा-समणा, समणीओ, सावया, सावियाओ।' श्रमण, श्रमणी, श्रावक एवं श्राविका ही जैन धर्म की धुरी हैं। 'श्रमण' शब्द ही साधना का परिचायक है। तप और खेद (परिश्रम) अर्थवाली 'श्रम्' धातु से श्रमण शब्द बनता है। प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने कहा है कि 'श्राम्यन्तीति श्रमणा तपस्यन्तीत्यर्थः' अर्थात् जो तप करता है वह श्रमण है। प्राचार्य रविषेण ने तप को ही श्रम कहा है जिससे राजा लोग भी अपने वैभवपूर्ण जीवन को त्याग अभिभूत हुए
परित्यज्य नपो राज्यं, श्रमणो जायते महान ।
तपसा प्राप्य सम्बन्धस्तपो हि श्रम उच्यते । १. त्रि, श. पु. च. १०।२९ से ३३ २. भगवतीसूत्र सटीक, शतक २, ३, ८, सूत्र ६८२, पत्र १४६ ३. पद्मचरित, ६२
धम्मो दीवो संसार समुप में धर्म ही दीप
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