________________ जैन संस्कृति का आलोक 2. नियमित आवश्यक दिनचर्या के अतिरिक्त प्रतिदिन संघस्थ मुनियों एवं आचार्यों के प्रवचनों के कार्यक्रम रखें जावें। उसमें कुछ समय प्रश्नों के उत्तरों के लिए भी निर्धारित रहे। 3. प्रवचनों में तात्त्विक चर्चा के अतिरिक्त चरित्र-निर्माण सम्बन्धी रोचक एवं सरल कथाएँ भी प्रस्तुत की जावें, ताकि नवीन पीढ़ी तथा बच्चे भी उन प्रवचनों को सुनने के लिए लालायित, आकर्षित और प्रभावित हों। 4. आचार्य एवं मुनि-संघ के निदेशन में स्थानीय मन्दिरों एवं उपाश्रयों में सुरक्षित हस्तलिखित-ग्रन्थों की साज- सम्हाल एवं उनका सूचीकरण किया जाय, जिसमें विद्वानों तथा श्रावक-श्राविकाओं का यथाशक्ति पूर्ण सहयोग रहे। तत्पश्चात जैन-पत्रों में उस सूची को प्रकाशित करा दिया जाय जिससे समस्त शिक्षा जगत् को उसकी जानकारी मिल सके। 5. चातुर्मास की स्मृति को स्थायी बनाए रखने के लिए एक-एक हस्तलिखित ग्रन्थ का प्रकाशन प्रत्येक नगर की जैन समाज तथा साहित्यिक संस्थाओं के आर्थिक सहयोग से अवश्य किया जाय। 6. चातुर्मास की स्मृति को स्थायी बनाए रखने के लिए प्रत्येक श्रावक-श्राविका को कम से कम नवीनतम प्रकाशित एक जैन-ग्रन्थ अवश्य खरीदना चाहिए। 7. श्रावक-श्राविकाओं को प्रतिदिन मुनि-दर्शन एवं स्वाध्याय की प्रतिज्ञा करना चाहिए। 8. पूज्य आचार्यों, महामुनियों एवं साध्वियों से भी विनम्र प्रार्थना है कि वे अपने चातुर्मासकाल में कम से कम एक नवीन अद्यावधि अप्रकाशित ग्रन्थ का स्वाध्याय, उद्धार, सम्पादन, अनुवाद एवं तुलनात्मक समीक्षात्मक अध्ययन तथा प्रकाशन अवश्य ही करने की कृपा करें। यह कार्य व्यक्तिगत रूप से भी किया जा सकता है अथवा संघस्थ साधु-साध्वियों के सहयोग से भी तैयार कराया जा सकता है। यदि हमारे आचार्य/मुनि इस दिशा में कार्य करने/ कराने की महती कृपा कर सकें, तो जैन-विद्या की सुरक्षा एवं प्रगति में तीव्रगामी पंख लग जावेंगे और हम लोग यही अनुभव करेंगे कि एक बार पुनः हमारे जीवन में प्रारम्भिक सदियों का वह ऐतिहासिक काल आ गया है, जब एक ही साथ अनेक आचार्य एवं मुनि, समाज की आवश्यकतानुसार विविध-विषयक साहित्य का संरक्षणसम्पादन, प्रणयन, लेखन-कार्य कर रहे थे और जो परवर्ती कालों में सभी के लिए प्रकाश-स्तम्भ का कार्य करता रहा। नित्यप्रति बदलते सन्दर्भो में अब यह समय विशेषरूप से जागृत होने तथा जैनेतर समाजों की सभी प्रकार की प्रगतियों और मानसिकताओं को समझने की आवश्यकता है। पारस्परिक तुलना करते हुए यह भी देखना है कि विभिन्न परिस्थितियों में हमारी वर्तमान सामाजिक स्थिति और इसी स्थिति में रहते हुए अगले 50 वर्षों में उसके क्या परिणाम होंगे ? ... प्रो. डॉ. श्री राजाराम जैन 'जैन विद्या' के श्रेष्ठ विद्वान् हैं। आपको प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी आदि अनेक भाषाओं के साहित्य का विशेष ज्ञान है। आपने अपना सम्पूर्ण जीवन जैन विद्या एवं प्राकृत के अध्यापन में लगाया तथा अनेक ग्रन्थों का प्रयणन तथा संपादन किया। सेवा निवृत्त होने के बाद भी आपकी साहित्य सृजन व शोध कार्य की प्रवृत्तियाँ निरंतर गतिशील हैं। संपादक | श्रमण संस्कृति के संरक्षण में चातुर्मास की सार्थक परम्परा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org