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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
अर्थात् इस ग्रन्थ की प्रतिलिपि करते-करते गर्दन कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, पूज्यपाद क्षमाश्रमण, झुक गई है, कमर एवं पीठ टूट गई है, नीचा मुख करके जिनसेन रविषेण, हरिभद्र, अकलंक, अमृतचन्द्र, विद्यानन्दि, निरन्तर लिखते रहने के कारण मेरी दष्टि कमजोर हो गई यशोविजय आदि ने जो इतना विशाल एवं गौरवपर्ण है। भूख-प्यास सहकर अत्यन्त कठिनाई पूर्वक मैंने इस अमर साहित्य लिखा, उसे उन्होंने कब लिखा होगा? मेरे ग्रन्थ-शास्त्र को लिखकर दीमक एवं चूहों से सुरक्षित रखा विचार से उनका अधिकांश भाग चातुर्मासों के एकान्तवास है। अतः अब आप जैसे सज्जनों का यह कर्तव्य है कि में ही लिखा/लिखाया गया होगा। पूर्व मध्यकालीन कर्नाटक आप उसे अत्यन्त सावधानीपूर्वक सुरक्षित रखें। के तलकाट एवं गुजरात के वाटनगर एवं वल्लभी जैसे
श्रमण-विद्या के उच्च केन्द्र इसके लिए अत्यन्त प्रसिद्ध रहे चातुर्मास का इतिहास संजोये ये खंडहर
हैं, जहाँ अधिकांश जैन साहित्य, पुराण, न्याय, ज्योतिष, प्राचीन भारतीय भूगोल के अध्ययन क्रम में यदि गणित, आयुर्वेद तथा षटखण्डागम-साहित्य एवं अर्धमागधी ग्रामों एवं नगरों के नामों पर विशेष ध्यान दिया जाय तो आगम साहित्य एवं उन पर विस्तृत टीकाएँ लिखी गईं। चातुर्मासों के महत्व को समझा जा सकता है। बिहार एवं अतः वर्तमानकालीन चातुर्मास के पावनकाल में सचमुच राजस्थान के चौसा एवं चाइवासा तथा चौमूं जैसे ऐतिहासिक ही उन चिन्तक लेखक महामनीषियों तथा उनके सौभाग्यशाली नगर के नाम आज खण्डहर के रूप में अपना जीवन अगणित सेवक/श्रावक-श्राविकाओं तथा विद्वानों का स्मरण व्यतीत कर रहे हैं। किन्तु सांस्कृतिक एवं धार्मिक दृष्टि से कर उनसे प्रेरणा लेने तथा उस परम्परा को आगे बढ़ाने उनका अध्ययन करने की आवश्यकता है। उक्त ग्रामों की महती आवश्यकता है। के नाम-शब्द आज भी प्राकृतभाषा का बाना धारण किए ___ठोस रूपरेखा बनायें हुए हैं। वे निश्चित रूप से किन्हीं जैन-संघों के चातुर्मास
यह तथ्य है कि जिनवाणी-सेवा, साहित्य-सुरक्षा, का इतिहास अपने अन्तस्तल में संजोए हुए हैं। उक्त
मूर्ति-मन्दिर-निर्माण तथा समाज-विकास के कार्य कभी पूर्ण प्रथम एवं तृतीय शब्द चातुर्मासों के ही परवर्ती संक्षिप्तरूप
नहीं होते। उनका चक्र निरन्तर चलता रहता है और यह है - जैसे चौसा = चउसा-चुम्मासा-चातुर्मासः । इसी प्रकार
गति किसी भी समाज की समुन्नति एवं विकास की चौमूं-चउमा-चउम्मासा-चातुर्मासः तथा चाइवासा-त्यागी-मुनि
द्योतक मानी गई है। सामाजिक विकास के साथ-साथ वासः । प्रतीत होता है कि इन स्थलों में कभी किसी युग
द्रव्य-क्षेत्र-काल एवं भाव के अनुसार साहित्यिक एवं में विशाल साधु-संघों ने चातुर्मास किये होंगे और वहाँ उस
पुरातात्विक नित नवीन आवश्यकताएँ भी बढ़ती जाती काल में उन्होंने विशिष्ट संरचनात्मक कार्य भी सम्पन्न किए
___ हैं। अतः उनकी ठोस रूपरेखाएँ चतुर्विध संघों को चातुर्मासों होंगे, जिनकी स्मृति में उन्हें चातुर्मास अथवा त्यागीवास के समय ही पर्याप्त समय मिलने पर पारस्परिक विचारनगर जैसे नामों से अभिहित किया गया होगा, जो आज
विमर्श के बाद तैयार की जा सकती हैं और विकास कार्यों उक्त संक्षिप्त नामों के रूप में उपलब्ध हैं। उक्त चौसा
को अविश्रान्त गति प्रदान की जा सकती है। बदले हुए ग्राम में तो उत्खनन करने पर वीं ६वीं सदी की प्राचीन
सन्दर्भो में आज जिन बातों की आवश्यकता का अनुभव सुन्दर अनेक जैन धातु प्रतिमाएँ भी उपलब्ध हुई हैं, जिन्हें
किया जा रहा है, वे संक्षेप में निम्नप्रकार है - पुरातात्विकों ने प्राचीनतम एवं अनुपम माना है तथा वे पटना एवं कलकत्ता के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं।
१. जहाँ भी आचार्य/मुनि संघ विराजमान हों, उस स्थल
का नाम “चातुर्मास स्थल" घोषित किया जाय और परम्परा को आगे बढ़ाये
वहाँ जैनाजैन विद्वानों की चरित्र-निर्माण सम्बन्धी आखिर में आचार्य भूतबलि पुष्पदन्त, गुणधर, भाषण-मालाएँ कराई जावें।
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श्रमण संस्कृति के संरक्षण में चातुर्मास की सार्थक परम्परा |
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