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कार्य कर पाता है । कुल मिलाकर, आधुनिक मानव समाज में आत्मप्रदर्शन की मिथ्या गतानुगतिकता की ऐसी लहर छा गई है कि वह सिवाय दूसरे का छीनने के अलावा और कुछ सोच ही नहीं सकता । श्रमण संस्कृति ने इसीलिए, अस्तेयभावना को सामाजिक जीवन में प्रतिष्ठा दी है।
ईशोपनिषद् की 'तेन त्यक्तेन भुञ्जजीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्' जैसी सामाजिक भावना को उबुद्ध करने वाली चेतावनी को आज के मानव ने नजरअन्दाज कर दिया है, इसीलिए उसमें चोर्यवृत्ति आ गई है। आत्मधन की अपेक्षा परधन के प्रति तृष्णा से वह निरन्तर आकुलव्याकुल हो रहा है । फलतः, उसके संयम का चाबुक बेकार हो गया है और इन्द्रियों के घोड़े बेलगाम हो गये हैं । उसके जैसा कामगृध्र व्यक्ति काम से ही काम को शान्त करना चाहता है । घी से आग को ठण्डा करना चाहता है ! और इसके लिए वह चौर्यवृत्ति से ही अपने सुख सन्तोष की सामग्री जुटाने में प्रबल पुरुषार्थ मान रहा है और हिंसा तथा मिथ्यात्व के प्रति एकान्त आग्रहशील हो उठा है ।
सारस्वत में भी आज अजीब छीना-झपटी चल रही है। गीता की 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः' की चेतावनी भी उसे याद नहीं रह गई है। फलतः, उसकी जिन्दगी की गाड़ी समतल सड़क को छोड़कर उबड़खाबड़ रास्ते में दौड़ पड़ी है। कृत्रिम पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध में पड़ उसने अपनी सहज प्राच्य संस्कृति की उपेक्षा कर दी है। यहाँ तक कि अपनी भाषा और साहित्य को भी वह मूल्यहीन मानने लगा है। उसके मूल्यांकन की तुला ही अभारतीय हो गई है ।
यही कारण है कि आधुनिक मानव विभिन्न मतवादों और साम्प्रदायिक रूढ़ियों की वात्या में विलुण्ठित हो रहा है। उसका अपना ज्ञानबोध अहंकार के अँधेरे में डूब गया है । ऐसी स्थिति में श्रमण-संस्कृति के पंचयाम धर्म की प्रोज्ज्वल प्रभा उसके तिमिरावृत्त हृदय को भास्वर बना सकती है। उसके दिग्भ्रष्ट जीवन-पोत के लिए अनेकान्त जयपताका दिशासूचक यन्त्र का काम कर
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सकती है। क्योंकि, श्रमण संस्कृति के पंचयाम धर्म में मानव की चेतना को अनावश्यक आग्रह से अलग कर अपेक्षित अनाग्रह के ज्योतिष्पथ की ओर ले चलने की अपरिमित शक्ति है । कहना न होगा कि श्रमणसंस्कृति में जीवन के विधायक अनेक महत्त्वपूर्ण पक्ष - जैसे अवर्णवाद, धार्मिक आचरण के नाम पर हिंसा एवं परिग्रहमूलक आडम्बरों का प्रतिक्षेप, सैद्धांतिक मतों का समन्वय, सामाजिक जीवन में समतावाद की स्थापना के द्वारा स्त्री-पुरुषों के लिए समान प्रगति की योजना, अधिक धन का प्रत्याख्यान और प्राप्त धन का स्वामित्व - हीन समान वितरण, पूँजीवाद का विरोध, ऊँच-नीच और स्पृश्यास्पृश्य जैसी समाजोत्थान-विरोधी भावना का निराकरण आदि - प्रतिनिहित हैं, जिनसे उसके उदात्त दृष्टिकोण का प्रत्यक्ष परिज्ञान प्राप्त होता है ।
श्रमण संस्कृति में श्रमण, ब्राह्मण, मुनि और तापस के लिए किसी निर्धारित वेश- विशेष की आवश्यकता नहीं । भगवान् महावीर ने इनकी परिभाषा उपस्थित करते हुए निर्देश किया है :
न वि मुण्डिएण समणो न ओंकारेण बम्भणो । न मुणी रण्णवासेण कुसचीरेण न तावसो | समयाए समणो होइ बम्भचेरेण बम्भणो । णाणेण य मुणी होइ तत्रेणं होइ
तावसो ॥
निस्सन्देह, केवल सिर मुड़ा लेने से कोई श्रमण नहीं होता, न ही ओंकार के जप से ब्राह्मण । जंगल में रहने से ही मुनि नहीं होता और न कुश तथा चीवर धारण करने से तपस्वी । वस्तुतः, जो समता से सम्पन्न है, वही श्रमण है, ब्रह्मचर्य का उपासक ही ब्राह्मण है, ज्ञानी ही मुनि है। और तप करनेवाला ही तपस्वी ।
इस प्रकार, श्रमण-संस्कृति ने प्रत्येक व्यक्ति को उत्थान के मार्ग का अधिकारी घोषित किया है। । अपनी साधना से सर्वसामान्य व्यक्ति भी पारमेश्वर्य की सिद्धि सुलभ कर सकता है। श्रमण संस्कृति ने ईश्वर के कर्तृव को नकारते हुए मानव के अजेय पुरुषार्थ के प्रति अडिग आस्था अभिव्यक्त की है। आत्मशक्ति के प्रति अविश्वास
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