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विवेक की सम्प्राप्ति एकमात्र अनेकान्त से ही हो सकती है । सत् के प्रति आसक्ति और असत् के प्रति वैराग्य अनेकान्त की भावना से ही आता है ।
आज
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भाषिक शुद्धि की दृष्टि से स्यादवाद और बेचारिक शुद्धि की दृष्टि से अनेकान्तवाद की स्थापना श्रमणसंस्कृति की उदात्तता का ही पार्यन्तिक रूप है । हम किसी वस्तु को एकान्त दृष्टि से सत्य मानने का भ्रम पालते हैं । किन्तु, अनेकान्तवाद इस भ्रम को दूर करता है किन्तु वस्तु को हम एकान्त दृष्टि से सत्य मानकर अपनी अनुदात्त दृष्टि का ही परिचय देते हैं। कोई भी मानव एकान्त भाव से पूर्ण नहीं होता । यदि हम किसी दर्शन के तत्व को ही पण्डित मान लेते हैं, तो यह एकान्त दृष्टि हुई सम्भव है, उस पण्डित को सांख्यिकी में तत्त्वज्ञता प्राप्त नहीं, तो फिर उसे एकान्त भाव से पण्डित कहना उचित भी नहीं । अनेकान्त दृष्टि से दर्शन की अपेक्षा यदि वह पण्डित है, तो सांख्यिकी की अपेक्षा पण्डित नहीं भी है। इसी विचारधारा के आधार पर अनेकान्त में 'सप्तभंगी नय' की प्रतिष्ठा हुई है। इस नय के द्वारा हम एकान्त से अनेकान्त की ओर प्रस्थान करते हैं, जहाँ हमें सम्पूर्ण जागतिक स्थिति का सही अभिज्ञान प्राप्त होता है और उदात्त दृष्टिकोण से संवलित होने का अवसर मिलता है । सर्वधर्मसमन्वय की समस्या का समाधान भी अनेकान्त ही दे सकता है।
ज्ञान और दया श्रमण संस्कृति के मेरुदण्ड हैं। ये दोनों ऐसे दिव्य तत्त्व हैं, जिनमें उदात्त दृष्टिकोण का अपार सागर तरंगित होता रहता है । कोई भी ज्ञानी पुरुष अनुदार नहीं हो सकता और किसी भी दयालु की विचारधारा संकीर्ण नहीं होती । किन्तु, दया की भावना का उदय बिना ज्ञान के सम्भव नहीं। इसीलिए, जिनवाणी की मान्त्रिक भाषा है : 'पढमं णाणं तओ दया ।' श्रमणसंस्कृति में ज्ञान को ही प्रमाण माना गया है । ज्ञान भी ऐसा, जो स्व और पर को समान रूप से आभासित करे और उसमें किसी प्रकार का बाधा व्यवधान न हो। इसीलिए आचार्य सिद्धसेन ने कहा है : 'प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम् ।' उदात्त दृष्टिकोण के लिए ज्ञान का होना अनिवार्य है और ज्ञान का क्रियान्वयन
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दया भावना से ही सम्भव है। ज्ञान की ही सक्रिय अवस्था दया है। ज्ञान की सक्रियता के लिए दया अनिवार्य है। कहना चाहिए कि ज्ञान और दया दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । इसीलिए, अनन्त ज्ञान से सम्पन्न तीर्थंकर दयालु' या 'कल्याणमित्र' की संज्ञा से सम्बोधित हुए ।
ब्रह्मचर्य की व्याख्या में भी श्रमण संस्कृति ने उदार दृष्टिकोण से काम लिया है। अन्यत्र जहाँ 'मरणं विन्दुपतेन जीवन विन्दुधारणात' का कठोर निर्देश मिलता को है, वहीं श्रमण संस्कृति ने 'स्वदारसन्तोष व्रत आज ब्रह्मचर्य के नाम ब्रह्मचर्य का दरजा दिया है। पर उन्मुक्त योनमेध का जो नग्न ताण्डव दृष्टिगत होता है, उसका संयमन 'स्वदारसन्तोष व्रत से सहज ही सम्भव है। एकमात्र अपनी पत्नी में ही सन्तोष के व्रत का पालन किया जाय, तो कामोष्मा से प्रतप्त आधुनिक समाज में संयम के स्वर्गीय सुख की अवतारणा हो जाय ।
श्रमण संस्कृति अपने उदात्त दृष्टिकोण के कारण ही व्यष्टिगत धारणा की अपेक्षा समष्टिगत धारणा के प्रति आग्रहशील है। वह 'भूमा वै सुखं नाल्पे सुखमस्ति' के सिद्धान्त का समर्थन करती है । वह प्रमा ( तद्वत् तत्प्रकारकं ज्ञानं ) पर आस्था रखती है, बाहरी चाकचिका को नकार देती है। वह सिद्धान्तों के भटकाव की स्थिति नहीं उत्पन्न करती । वह तो जीवन को सन्त्रास, कुण्ठा, अनास्था, विसंगति आदि दुर्भावनाओं के घात प्रतिघाती से बचने को प्रेरित करती है, ताकि मानव अपनी मानवता की चरम परिणति के सुमेरु पर विराजमान हो सके, सिद्धशिला पर आसीन होकर पल्योपम भूमि को आयत्त कर सके ।
आज का मानव नितान्त परिग्रही हो गया है। उसने अपने इर्द-गिर्द अनेक आडम्बर चिपका रखे हैं । अज्ञानता और दयाहीनता के कारण वह अनपेक्षित आभिजात्य भावना में पड़कर मानवता की गरिमा से परिच्युत हो गया है। वह बाह्य जगत् में अकर्म को कर्म और कर्म को अकर्म मान बैठा है। भौतिकता से अतिपरिचय के कारण वह आध्यात्मिकता की अवज्ञा कर रहा है। उसका कोई भी कथन न तो सुचिन्तित होता है, न ही वह कोई सुविचारित
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