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३०० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
ये तथा जिनमें अधिक कषाय उत्पन्न हो ऐसे तीव्र करते थे एवं यन्त्र (चौपड़, सतरंज वगैरह से यूतक्रीड़ा करते थे । '
८. कुछ लिंग धारणकर दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप तथा संयमरूप नित्यकर्मों का आचरण करते हुए मन में दुःखी होते थे, कुन्दकुन्द ने इन्हें तथा उपर्युक्त सभी को नरकगामी बतलाया है । "
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६. कुछ श्रमणलिंग धारण कर नृत्य करते थे, गाना गाते थे, वाद्य बजाते थे, परिग्रह का संग्रह करते थे अथवा उसमें ममत्व रखते थे, परिग्रह की रक्षा करते थे, रक्षा हेतु अत्यधिक प्रयत्न करते थे तथा उसके लिए निरन्तर आध्यान करते थे, भोजन में रसलोलुप होते हुए कन्दर्पादि में वर्तते थे तथा ईपिच का पालन न कर दौड़ते हुए चलते थे, उछलते थे, गिर पड़ते थे, पृथ्वी तथा वृक्षों के समूह का छेदन करते कुछ दर्शन और ज्ञान से रखते थे तथा जो निर्दोष थे उन्हें दोष लगाते थे ।" कुछ मुनियों की तथा प्रव्रज्याहीन गृहस्थ तथा शिष्यों के प्रति अत्यधिक स्नेह रखते थे । कहा है, उनकी दृष्टि में वे वास्तव में श्रमण नहीं थे ।
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१०. आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में जो आहार के निमित्त दौड़ता है, आहार के निमित्त कलह कर उसे खाता है तथा आहार के निमित्त अन्य से ईर्ष्या करता है, वह श्रमण जिनमार्गी नहीं है ।" जो बिना दिया हुआ दान लेता है; परोक्ष में दूसरे की निन्दा करता है, जिनलग को धारण करता हुआ वह भ्रमण चोर के समान है।"
११. जो महिलावर्ग में दर्शन, ज्ञान और चारित्र की शिक्षा दे विश्वास उत्पन्न कर उनमें प्रवृत्ति करता है, वह पार्श्वस्थ (भ्रष्ट मुनि) से भी निकृष्ट है । १२ जो व्यभिचारिणी स्त्री के घर आहार लेता है, नित्य उसकी स्तुति करता हुआ पिण्डपोषण करता है, वह अज्ञानी है, भावविनष्ट है, श्रमण नहीं है । अतः श्रमणधर्मी को जानना चाहिए कि अलग धर्मसहित होता है, लिंग धारण करने मात्र से ही धर्म की प्राप्ति नहीं हो जाती है। अतः भावधर्म को जानना चाहिए, केवल लिंगमात्र से कोई प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं है । यदि लिंग रूप धारण कर भी दर्शन, ज्ञान, चारित्र को उपधान रूप धारण न किया, केवल आतंध्यान ही किया तो ऐसे व्यक्ति का अनन्त संसार होता है ।
१.
मायामयी आचरण करते थे। कुछ श्रमण पृथ्वी को बोदते हुए चलते धान्य, अमग नित्य महिलावर्ग के प्रति स्वयं राग क्रिया और गुरुओं के प्रति विनय से रहित थे आचार्य कुन्दकुन्द ने इन सभी को तिर्यग्योनि
देवविहीन श्रमण
व्रत, समिति, इन्द्रियरोध, लोच, आवश्यक, अवेलपना, अस्तान, भूमिशयन, अदन्तधावन, खड़े-खड़े भोजन करना और एक बार आहारों के मूल जिनवरों ने कहे है, उनमें प्रमत होता हुआ अमन छेदोपस्थापक
चोराण लाउराण य जुद्ध विवादं च तिव्वकम्मेहिं । जंतेण दिव्यमाणो गच्छदि लिंगी गरवा ॥ २. वही, ११. २. बही, ४. ४. बड़ी, ५. ८. वही, १७.
६. वही, १८.
१०. धावदिपिडणिमित्तं कलहं काऊण भुंजदे पिंडं ।
अवरूप सूई संतो जिणमग्गि ण होइ सो समणो ॥ - वही, १३. ११. गिदि अदत्तदाणं परनिंदा वि य परीक्ख दूसेहिं ।
जिणलिंगं धारंतो चोरेण व होइ सो समणो ॥ - वही, १४. १२ . वही, २०. १३. वही, २.
१०.
५. वही, १२. ६. वही, १५. ७. वही, १६.
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