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चतुर्थ खण्ड / १५६
प्रागमज्ञों के लिए यह अपवाद-विधान विचारणीय है।
व्योम-विहार
जैनागमों में केवल विद्याचारण और जंघाचारण लब्धि से सम्पन्न श्रमणों के व्योम-विहार का वर्णन मिलता है।
विद्याचारणलब्धि निरन्तर छठ-छठ [बेला-बेला] तप करते हुए प्राप्त होती है।
जंघाचारणलब्धि निरन्तर अट्ठम-अट्ठम [तेला-तेला] तप करते हुए प्राप्त होती है। चारण मुनियों की त्वरित गतिशक्ति
विद्याचारण श्रमण एक चुटकी बजावे, जितनी देर में पूरे जम्बूद्वीप की एक परिक्रमा कर सकता है।
जंघाचारण श्रमण एक चुटकी बजावे जितनी देर में पूरे जम्बूद्वीप की सात परिक्रमा कर सकता है। व्योम-विहार का उद्देश्य
चारणमुनियों के व्योम-विहार का उद्देश्य केवल चैत्य वन्दन है । इसके अतिरिक्त इन सूत्रों में अन्य उद्देश्य निर्दिष्ट नहीं है ।
प.-कतिविधा णं भंते ! चारणा पन्नत्ता? उ.-गोयमा ! दुविहा चारणा पन्नत्ता, तंजहा
विज्जाचारणा य जंघाचारणा य । विज्जाचारणसरूवं
प.-से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-विज्जाचारणे--विज्जाचारणे ? उ.-गोयमा ! तस्स णं छ8'छट्टणं अणि क्खित्तेणं तवोकम्मेणं विज्जाए उत्तरगुण
लद्धि खममाणस्स विज्जाचारणलद्धी नाम लद्धी समुप्पज्जइ ।
से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ-विज्जाचारणे-विज्जाचारणे । प.-विज्जाचारणस्स णं भंते ! कहं सीहा गती, कहं सीहे गतिविसए पण्णत्ते ? उ.-गोयमा ! अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे जाव किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं । देवे ण
महिड्ढीए जाव महेसक्खे जाव इणामेव--इणामेव त्ति कटट केवलकप्प जंबूद्दीवं दीवं तिहिं अच्छरानिवाएहिं तिक्खुत्तो अणुपरियट्टित्ता णं हव्वमागच्छेज्जा, विज्जाचारणस्स णं गोयमा ! तहा सीहा गती, तहा सीहे गतिविसए
पण्णत्ते। प..-विज्जाचारणस्स णं भंते ! तिरियं केवतियं गतिविसए पण्णत्ते ? उ.--गोयमा ! से णं इनो एगेणं उप्पाएणं माणुसुत्तरे पव्वए समोसरणं करेति,
करेत्ता तहिं चेइयाई वंदति, वंदित्ता तो पडिनियत्तति, पडिनियत्तित्ताइहमागच्छइ, प्रागच्छित्ता इह चेइयाई वंदति । विज्जाचारणस्स णं गोयमा ! तिरियं एवतिए गतिविसए पण्णत्ते ।
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