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आभापायप्रवभिनय आनन्दग्रन्थश्राआनन्दा ग्रन्थ २६६ धर्म और दर्शन
या स्याद्वाद है। विभज्यवाद अपेक्षा पर आधारित है और स्याद्वाद भी अपेक्षावाद पर आधारित है। ये दोनों वाद सापेक्षवाद हैं और प्रतीत्यसमुत्पादवाद का तात्पर्य भी सापेक्षवाद में है। इस प्रकार एक हद तक दोनों वादों का साम्य स्पष्ट है। फिर भी इन दोनों वादों का जो विकास हुआ है उसमें दो दिशायें स्पष्ट हैं। बौद्धों में प्रतीत्यसमुत्पादवाद के सिद्धान्त की निष्पत्ति शून्यवाद तक हुई है जो निषेधप्रधान है और जैनों में नयवाद का विकास हुआ जो विधिप्रधान है। निषेधप्रधान कहने का तात्पर्य नास्तिकवाद से नहीं है----यह तो स्पष्ट कर दिया गया है। तो उसका तात्पर्य इतना है कि भगवान् बुद्ध ने शाश्वत और विच्छेद इन दोनों का निषेध किया और अपने मार्ग को-मध्यममार्ग कहा। जबकि भ० महावीर ने शाश्वत और उच्छेद इन दोनों को अपेक्षा भेद से स्वीकृत करके विधिमार्ग अपनाया। स्याद्वाद और शून्यवाद में एकान्त उच्छेद और एकान्त विनाश समान रूप से असंमत है। एक की भाषा में निषेध प्रधान प्रयोग है जब कि दूसरे की भाषा में विधि प्रधान प्रयोग देखा जाता है।
भगवान् बुद्ध ने तो मध्यममार्ग कहकर छोड़ दिया था। किन्तु नागार्जुन ने प्रतीत्यसमुत्पादवाद और शून्य का समीकरण किया जो प्रयोग की दृष्टि से भ्रामक सिद्ध हुआ। भ० महावीर ने अपेक्षाभेद से विरोधी मन्तव्यों को स्वीकार किया था और अपेक्षासूचक शब्द 'स्यात्' रखा था और यही शब्द दार्शनिकों में भ्रम पैदा करने में कारण हुआ। परिणाम स्पष्ट है कि भाषा की अपनी मर्यादा है जिसके कारण शून्यवाद नास्तिक समझा गया और स्याद्वाद संशयवाद ।।
भाषा की इस मर्यादा को लक्ष्य करके ही तो कहा गया है कि 'परमार्थो हि आर्याणां तुष्णींभावः' (मध्य० वृ० १० १६)। फिर भी यदि शून्यवादी अपना मंतव्य भाषा के द्वारा ही व्यक्त करता है तो उसके पीछे दृष्टि यह है कि---
नान्यया भाषया म्लेच्छः शक्यो ग्राहयितु यथा ।
न लौकिकमृते लोक: शक्यो ग्राहयितु तथा ॥ -चतुःशतक ८।१६ यही बात जैन आचार्य कुन्दकुन्द ने भी कही है
जह णवि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा दु गाहेदु।
तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं ॥ -समयसार ८ शून्यवाद की स्थापना में युक्ति और आगम दोनों का अवलम्बन है यह स्पष्टीकरण चन्द्रकीति ने किया है-"आचार्यों युक्त्यागमाभ्यां संशयमिथ्याज्ञानापाकरणार्थ शास्त्रमिदमारब्धवान्"-(माध्यम क० पृ० १३) यही बात आचार्य समन्तभद्र ने भी अनेकान्तवाद के समर्थन में लिखी गई आप्तमीमांसा में कही है
स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्ध न न बाध्यते ॥ --आप्तमी०६
४ सूत्रकृतांग १-१४-२२ । और भी चर्चा के लिए देखें न्याया० प्रस्तावना, पृ० १२ (सिंधी) ५ प्रतीत्यसमुत्पादवाद के नागार्जुन ने जो विशेषण दिये हैं-वे हैं-अनिरोधमनुत्पादमनुच्छेद
मशाश्वतम् । अनेकार्थमनानार्थमनागममनिर्गमम् । यः प्रतीत्यसमुत्पादं...'' -माध्य० का० १ ६ विस्तृत चर्चा के लिए देखें-न्याया० प्रस्तावना, पृ० १४ ७ यः प्रतीत्यसमुत्पादः शून्यतां तां प्रचक्ष्महे ।-माध्य० २४-१८ । ८ स्याद्वाद को संशयवाद कहने वाले केवल शंकर ही नहीं। दशवै० अगस्त्यचूणि में भी ऐसा ही
कहा है।
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