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________________ A प्रो० दलसुख भाई मालवणिया [निदेशक-ला० द० भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद । भारतीय दर्शनों के प्रकांड विद्वान, जैनविद्या के अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध मनीषी] నాల शून्यवाद और स्याद्वाद भारतीय दार्शनिकों में यदि किसी वाद के विषय में भ्रान्ति हुई है तो सर्वप्रथम शून्यवाद के विषय में और बाद में स्याद्वाद के विषय में। शून्यवाद के लिए भ्रमजनक उस वाद का 'शून्य' शब्द ही हुआ है और स्याद्वाद के लिए 'स्यात्' शब्द । केवल इन शब्दों को ही पकड़कर दार्शनिकों ने इन इोनों वादों का खंडन किया है । शून्यवादी का खंडन परम नास्तिक मानकर और स्याद्वादी का खंडन संशयवादी मानकर किया गया है। इसमें दोनों के प्रति अन्याय हुआ है। दार्शनिकों ने दोनों वादों का गहराई से अध्ययन नहीं किया। परिणामतः जो कुछ खंडन हुआ उसमें दम नहीं है, तर्क नहीं है, केवल अटकलबाजी है। शून्यवादी उच्छेदवादी तो है नहीं, फिर नास्तिक कैसे है ? नास्तिक के लिए तो परमार्थ कुछ नहीं है जबकि शून्यवाद में परमार्थ है।' स्याद्वाद के प्रति आक्षेप है कि यह संशयवाद है किन्तु वस्तुतः वैसा नहीं है। यह तो स्याद्वाद के किसी भी ग्रन्थ को देखकर निर्णय किया जा सकता है। शंकर जैसे विद्वान् ने जब से इन दोनों वादों का खंडन साम्प्रदायिक दृष्टि अथवा स्थूल दृष्टि से किया है तब से प्रायः सभी दार्शनिकों ने उनका ही अनुसरण किया है, मूलग्रन्थों को देखने की किसी ने तकलीफ नहीं की । परिणाम यह है कि भारतीय दर्शन की दोनों विशिष्ट धारा का विशेष परिचय विद्वानों को हुआ नहीं है। भगवान बुद्ध ने अपने समय के उपनिषद्-संमत शाश्वतवाद और नास्तिक-संमत उच्छेदवाद दोनों को अस्वीकृत करके अपने प्रतीत्यसमुत्पादवाद की स्थापना की। स्पष्ट है कि यह वाद एक नया वाद है-उसमें कार्यकारण के संबंध के विषय में एक नई विचारणा अपनाई गई है। भगवान बुद्ध अपने को विभज्यवादी कहते हैं, एकांशवादी नहीं। भगवान महावीर ने भी भिक्षुओं के लिए विभज्यवाद अपनाने का आदेश दिया है। उसी विभज्यवाद का रूपान्तर अनेकान्तवाद १ यद्यभावात्मिका शून्यता कथं परमार्थ उच्यते ? परमज्ञानविषयत्वात् । अनित्यता वत् न तु वस्तुत्वात् । -मध्यान्त विभाग० टी० पृ०३६ तथता भूतकोटिश्चानिमित्तं परमार्थता। धर्मधातुश्च पर्यायाः शून्यतायाः समासतः ।। -मध्यान्त वि० १.१४ टीकाकार स्थिरमति ने-अद्वयता, अविकल्पक धातुः, धर्मता, अनभिलाप्यता, निरोध, असंस्कृत, निर्वाण को भी पर्याय बताया है-टी० पृ० ४१ २ देखें-प्रमाणमीमांसा, प्रस्तावना, पृ० ६ (सिंघी) ३ मज्झिम० सु० ६६ माधानास आचार्यप्रवभि श्राआनन्दमन्थश्रीआनन्दग्रन्थ mmmmmmmmmmrammarwaamanaram Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org MAMANABANJAAAAAAAAAAADAJARAAAAAJARAMODARADABAD
SR No.212022
Book TitleShunyawad aur Syadwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherZ_Anandrushi_Abhinandan_Granth_012013.pdf
Publication Year1975
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Anekantvad
File Size603 KB
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