________________ रहता है उसका नाम वर्तना है। यद्यपि सभी द्रव्य अपने-अपने पर्याय रूप से स्वयमेव परिणमन करते रहते हैं किन्तु उनका बाह्य निमित्त काल के परिणाम क्रोधादि हैं और पुद्गल के परिणाम रूप रसादि हैं। एक स्थान से दूसरे स्थान में गमन करने को क्रिया कहते हैं। यह क्रिया जीव और पुद्गल में ही पाई जाती है। जो बहुत समय का होता है उसे 'पर' कहते हैं और जो थोड़े दिनों का होता है उसे 'अपर' कहते हैं।" 'सप्तभगी' सूत्र पर टिप्पणी करते हुए आचार्य श्री ने कहा है "सप्तभंगी की ये सातों भंगें कथंचित् (किसी एक दृष्टिकोण से) की अपेक्षा तो सत्य प्रमाणित होती हैं, इसी कारण इनके साथ 'स्यात्' पद लगाया जाता है। यदि इनको 'स्यात्' न लगाकर सर्वथा (पूर्णरूप से) माना जावे तो ये भंगें मिथ्या होती हैं।" सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यग्चरित्र ये तीन मोक्ष के कारण हैं जिसे दो प्रकार का कहा जाता है-द्रव्य मोक्ष तथा भाव मोक्ष। घाति कर्मों के क्षय की अपेक्षा अहंत अवस्था प्राप्त होना द्रव्य मोक्ष है और अनन्त चतुष्टय प्राप्त होकर अहंत पद प्राप्त करना भाव मोक्ष है। आचार्य श्री ने 'मोक्ष' की इस स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा है कि 'कर्म से रहित होना, कर्म-क्षय करना, कर्मों से आत्मा का पृथक् होना अथवा आत्म-स्वरूप की उपलब्धि होना या कृत्स्न (समस्त) कर्मों से मुक्त होना मोक्ष है, यह सब कथन भी एकार्थ वाचक है। इस तरह समस्त पर विजय प्राप्त करना द्रव्य मोक्ष है यही उपादेय है।" इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य माघनन्दि कृत 'शास्त्रसार समुच्चय' और उसकी कन्नड़ टीका का आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज द्वारा जो ग्रन्थात्मक प्रस्तुतिकरण किया गया है उसके वे अनुवादक कहे गए हैं। वास्तव में ग्रन्थ का पूरा अवलोकन यदि किया जाए तो आचार्य श्री ने अनुवाद कार्य से भी बहुत आगे बढ़कर ग्रन्थ पर एक स्वतन्त्र निजी भाष्य ही रच डाला है। आचार्य श्री ने अपने सरल उपदेशों, विशेष व्याख्यानों, विविध व्याख्यान शैलियों, गूढ़ शास्त्रीय एवं लाक्षणिक विवेचनाओं तथा चित्रमय प्रारूपों के माध्यम से शास्त्रसार समुच्चय की आड़ में जैन धर्म-दर्शन तथा प्राचीन देव-शास्त्रीय मान्यताओं को आधुनिक शैली में अभिव्यक्ति प्रदान की है। जैन परम्परा और द्वारा प्रस्तुत यह संस्करण जैन धर्म-दर्शन-इतिहास और संस्कृति का एक संक्षिप्त विश्वकोष है-एक ऐसा संग्रहणीय धर्म-कोष जो आधुनिक शैली में जैन धर्मानुप्राणित व्यक्ति को जैन धर्म की प्राचीन परम्पराओं और मान्यताओं से अवगत कराता है। प्रस्तुत ग्रन्थ के शिल्पवैधानिक वैशिष्ट्य को भी ऐतिहासिक सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए। आचार्य माघनन्दि 13वीं शती के आचार्य माने जाते हैं जब जैन दर्शन ही नहीं बल्कि सभी भारतीय दर्शन मौलिक चिन्तन से बहुत दूर हट चुके थे। समय की आवश्यकता यह बन गई थी कि तब तक जो भी लिखा जा चुका था उसे ही सरल एवं संक्षिप्त शैली में प्रस्तुत किया जाए। प्रकरण ग्रन्थों की रचना इस युग के इसी संक्षिप्तीकरण के मूल्य को लेकर उभरी है। 'शास्त्रसार समुच्चय' भी इसी प्रयोजन से लिखा गया ग्रन्थ प्रतीत होता है जिसमें जैन परम्परा के चार अनुयोगों की तात्त्विक स्थिति संक्षेप में प्रस्तुत की गई है। कन्नड़ टीका तथा अन्य संस्कृत टीका इस ग्रन्थ को विशद बनाने के प्रयोजन से लिखी गई हैं। परन्तु आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज ने हिन्दी भाषा को आश्रय बनाकर प्रस्तुत ग्रन्थ पर जो व्याख्या विशेष लिखी है वह पुनः एक ऐसा विरुद्ध प्रयास है जब संक्षिप्त सूत्र ज्ञान को बृहत् की ओर ले जाया गया हो, संक्षिप्त सूत्र की मणिय को जैन श्रुतज्ञान के अपार समुद्र में अभिषिक्त कर दिया गया हो। आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज द्वारा रचित इस शास्त्रसार समुच्चयभाष्य से ऐसा लगता है कि जैन तत्त्व-चिन्तन आज भी जीवन्त है। 24 आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org